SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरहम पट्टी करने के लिए मधु घृत, गुड़ आदि रात को लेता हुआ मुनि शुद्ध है। ___ कारण में रात को लेना और खाना दोनों ही शुद्ध है। ये सारे प्रसंग निशीथ भाप्य में बड़े विस्तार के साथ चर्चित हैं। रात्रि भोजन के ये निषेध, अपवाद और रात्रि भोजन परिहार के कारणों ने मिलकर एक बहुत बड़ा विसंवाद खड़ा कर दिया है । क्योंकि जिस कट्टरता से रात्रि भोजन का निषेध किया गया है उस निषेध के कारण उतने सशक्त नहीं हैं। उन करणों से रात्रि भोज विरमण के साथ कोई गहरी व्याप्ति नहीं है और जो है, तो फिर इन अपवादों का कोई अर्थ नहीं है । दूसरे में जितने भी रात्रि भोजन निषेध के कारण हैं वे लगभग व्यावहारिक प्रतीत होते हैं । व्यावहारिक दोषों को टालने के लिए इतना बड़ा प्रतिबन्ध करना पड़े, यह बुद्धिगम्य नहीं होता। एक बात और है जो व्यावहारिक दोष रात्रि भोजन से निष्पन्न होते हैं वे किसी जमाने में होंगे आज तो व्यवाहारिक आपत्ति भी नहीं रही । रात्रि भोजन यदि हिंसा, मूठ की भांति आत्मा को मलिन करने वाला पाप है तो फिर अपवाद कैसा ? इन सब तर्कों के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि जैन, बौद्ध वैदिक सभी धर्मों में रात्रि भोजन वज़न का जो विधान है वह बड़ा वैज्ञानिक होना चाहिए। उसके पीछे छुट-पुट व्यावहारिक कारण नहीं है किन्तु बड़े गूढ़तम कारण हैं। जैन आगमों में दशवकालिक सूत्र में एक स्थान पर रात्रि भोजन वर्जन का एक बड़ा गहरा हेतु दिया है। वहाँ कहा गया है कि मुनि आत्म-हित के लिए रात्रि: भोजन वर्जन का सीधा सम्बन्ध आत्म साधना से नहीं लगता पर वस्तुतः यह आत्म साधना का पहला सूत्र है । रात्रिभोजन आत्म साधना में बाधक कैसे बनता है। इसकी गवेषणा करना है। रात्रि भोजन मूलतः स्वास्थ्य के लिए अहितकर है क्योंकि रात में खाया गया भोजन ठीक से पचता नहीं सूर्य की किरणों से जैसा भोजन का स्वाभाविक ढंग से परिपाक होता है, बिना सूर्य की किरणों के उसे पचाने में बड़ी शक्ति लगानी पड़ती है और अन्यान्य कृत्रिम साधनों का प्रयोग करना पड़ता है। जो लोग रात को खाना खाकर घूमते फिरते हैं उनका भोजन फिर भी काफी अशों में पच जाता है। लेकिन जो लोग खाना खाकर लेट या बैठ जाते हैं, उनके बिना सूर्य की किरणों के वह खाना अधपचा रह जाता है । ऐसा आज के वैज्ञानिक अनुसंधानों से सिद्ध कर दिया है । आज के शरीर-शास्त्री, चिकित्सक लोग भी इस तथ्य को निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं । आयुर्वेद में ऐसा स्पष्ट उल्लेख है कि सूर्य की किरणों के बिना खाया हुआ भोजन नहीं पचता क्योंकि सूर्य की किरणों के अभाव में हृदय और नाभि कमल का संकोच हो जाता है। आंतें ठीक से काम नहीं करती । अत: रात में नहीं खाना चाहिए । दूसरे में सूक्ष्म जीवों का भी डर रहता है कि कहीं वे निगले न जायं ।' जो खाना पचता नहीं है वह शरीर में नाना प्रकार के रोगों को उत्पन्न करता है। रोगग्रस्त व्यक्ति किसी भी कार्य क्षेत्र में असफल रहेगा और साधना से विचलित हो जाता है । प्राचीन जैन ग्रन्थों में भी ऐसा उल्लेख है 'भुजसु सूरे जं जिज्जे' अर्थात् मुनि उतना ही खाय जितना सूर्य रहते ४४ तुलसी प्रज्ञा-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524503
Book TitleTulsi Prajna 1975 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Gelada
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy