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________________ विमलावश्यक, , १५. धर्मप्रभावना, १६. प्रवचन-वत्सलता | रतिरागविरक्तोऽसि सद्गुरो! ज्ञानसागर! तीन मूढ़ताओं का त्याग, शंका आदि आठ मलों रत्नाकराय दोषेशो दर्शनं देहि शंकरः॥ ५॥ से रहित होना, ज्ञान-दर्शन और चारित्र विनय से युक्त मंगलकामना होना, अहिंसादि व्रत और उनके रक्षक, क्रोध त्याग आदि, महान् योगी केवल समाधिलीन ही नहीं रहते। शीलों में निर्दोष रूप से प्रवृत्त होना, निरन्तर ज्ञानमय | वे समस्त विश्व के कल्याण की सर्वदा शुभकामना भी उपयोग होना, संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होना, शक्ति | करते हैं। उनका आदर्श चिन्तन हमारे देश के लिए सर्वदैव के अनुसार दान देना, शक्ति के अनुसार उपवास आदि | उन्नतिकर हैकरना, साधुओं की चर्या में सहयोग करना एवं उनकी भारतः सर्वदेशेषु भातु भेषु शशिप्रभा। रक्षा करना, साधुसेवा करना, वीतराग प्रभु के गुणों का वनेऽप्यत्र सन्तः सन्ति मृगेन्द्राः विभया इव॥ ६॥ ध्यान करना, गुणीजनों के प्रति अनुराग रखना, उनका मंगलकामना सम्मान करना इत्यादि ये भावनाएँ हैं, जो मनुष्य को उनकी राष्ट्र के प्रति महती मंगलकामना है कि परम पद की ओर अग्रसर करती हैं। भारतवर्ष सब देशों में उस तरह सुशोभित हो, जिस तरह __आचार्यश्री की शैली अत्यन्त सशक्त, विकसित | नक्षत्रों में चन्द्रमा की प्रभा, तथा जिस प्रकार वन में एवं परिष्कत है। जिस स्थान पर जैसा भाव या प्रसंग सिंह निर्भय रहते हैं, उसी प्रकार इस देश में सत्पुरुष है उसी के अनुसार पदावली का प्रयोग है। मुरजबन्ध | भी निर्भय रहें। जैसा कठिन प्रयोग किया गया है। अलंकार योजना अति तले क्षितेर्जनाः सर्वे सुखिनः सन्तु सौगत। प्रभावोत्पादक है। दार्शनिक विषय को भी उन्होंने भव्य कं भजन्तु सदैवैते यान्तु कदापि न हकम्॥ ७॥ प्राणियों के लिए इसमें संदर रूप में बताने का प्रयत्न मंगलकामना किया है। वर्ण की विलोम शक्ति पर आपका अपूर्व हे भगवन्! पृथ्वी तल पर सब मनुष्य सुखी हों, अधिकार है। विचक्षण बुद्धि के धनी, संसार से विरक्त, ये सदा ही सुख को प्राप्त हों, कभी भी दुःख को प्राप्त न हों, ऐसी मेरी भावना है। कवि ने समस्त विश्व के महान् योगी विद्यासागर जी एक साक्षात् जीवित सरस्वती देवी के वरदपत्र हैं। दिगम्बरत्व का साक्षात् स्वरूप एवं प्रति ऐसी मंगलकामना की है। राष्ट्रसन्त आचार्य विद्यासागर का परम सन्देश हैशास्त्रमर्मज्ञ आचार्य विद्यासागर विपुल ज्ञान के भण्डार "क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्" एवं कषायों को क्षीण हैं। कृतज्ञता प्रकाशन में वे पूज्य गुरुवर ज्ञानसागर जी करना, मानव मात्र के प्रति समर्पित होना- इन सदगणों को ही कारण मानते हैं, क्योंकि उनके ही आशीर्वाद का पालन करते हुये अपने लक्ष्य मोक्षमार्ग की ओर से वे विद्यासागर कहलाते हैं अग्रसर होना ही मनुष्य जन्म को सफल करना है। महान "श्रीज्ञानसागरकृपापरिपाक एव, साहित्यकार आचार्यश्री अपनी लेखनसंबंधी त्रुटियों के प्रति यद् भावना-शतककाव्यमघारिहन्तु। भी विनयावनत हैंअध्यास्य सुश्रयमतोऽस्य सुशस्यकस्य, क्षायोपशमिकज्ञानात् स्खलनमत्र भावतः। विद्यादिसागरतनुर्लघु ना भवामि॥ १०१॥" विजैरतः समाशोध्य पठितव्यं सुखप्रदम्॥ ८॥ पूज्य ज्ञानसागर जी की कृपा से मेरे द्वारा पाप . मंगलकामना रूप शत्रुओं को नष्ट करने वाला 'भावनाशतकम्' नामक आचार्यप्रवर कवि ही नहीं, अपितु उच्चकोटि के काव्य का प्रणयन हुआ है। अतः अतिशय प्रशंसनीय दार्शनिक भी हैं। कविजनोचित विदग्धता के साथ-साथ आत्मावाले गुरु का आश्रय प्राप्त करके मैं एक साधारण उच्चकोटि की विद्वत्ता एवं विश्व के प्रति, मंगलमय जीवन मनुष्य विद्यासागर बन गया हूँ। के प्रति भी उनका सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित है। भावनाशतकम्' महर्षि के महान् विचार सांसारिक प्राणियों के लिए ('तीर्थकर ऐसे बने') का आपके द्वारा किया गया पद्यानुवाद प्रेरणादायक हैं कि कृतज्ञ बनो, कृतघ्न नहीं। हे महान भी तत्त्वज्ञान से समाहित है। इसका प्रधान आधार तीर्थंकरगुरु ज्ञानसागर! आप मुझे दर्शन दें | प्रकृति की कारणभूत सोलह भावनाओं ('दर्शनविशुद्धि' दिसम्बर 2009 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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