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ग्रन्थसमीक्षा
आचार्य विद्यासागर महाराज और उनका ‘भावनाशतकम्'
डॉ. शिखरचन्द्र जैन
. भावनाशतकम् (तीर्थंकर ऐसे बने), रचयिता-आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज, संस्कृत टीकाकार- डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, प्रकाशक- निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन समिति, पी-४, कलाकार स्ट्रीट, कोलकाता- ७००००७ (प० बंगाल) द्वितीयावृत्ति-२००८, पृष्ठ-१२०, मूल्य-१० रुपये।
प्रात:स्मरणीय श्रद्धेय परमपूज्य कुशाग्रबुद्धि,। पर आप महान् दार्शनिक के रूप में प्रकट हुए हैं। ज्ञान बहुभाषाधिकारी (रसनाग्रनर्तकीविद्या) जैन आचार्य | का अक्षय भण्डार आप स्वयं हैं। कालजयी हिन्दी विद्यासागर (जन्म १० अक्टूबर, १९४६, चिक्कोड़ी | | महाकाव्य 'मूकमाटी', ६ संस्कृत शतक, संस्कृत चम्पृ (बेलगाँव) कर्नाटक) विलक्षणप्रतिभा के धनी हैं। उनकी | काव्य, ९ हिन्दी शतक, ३ हिन्दी काव्य संग्रहों जैसी मानसिक, शारीरिक, दुरूहतपस्यानिस्सृतवाणी भावनाशतकम्' अनेक रचनाओं का संस्कृत, हिन्दी कन्नड़ बांगला एवं काव्य में परिपूर्ण रूप से परिलक्षित होती है। शब्दालंकार- अंग्रेजी में भी प्रणयन, अनुवाद इत्यादि करके आपने बहुल यह ग्रन्थ हृदय से सहजरूप में रचित है, जहाँ सरस्वती देवी का आशीर्वाद प्राप्त किया है। जन्मना कन्नड़ पर कि हृदय के तन्तुओं से सरस्वती की लहरें कल्लोल भाषाभाषी होते हुए भी आचार्यश्री ने प्राकृत, अपभ्रंश, करती हुईं श्लोकरूप में प्रस्फुटित होती हैं (Spontaneous संस्कृत भाषा के ग्रन्थों का गूढ़ अध्ययन किया है। आपने Flow) जो आधुनिक वैज्ञानिक युग की प्रवृत्तियों एवं | 'समयसार', 'प्रवचनसार', 'नियमसार', 'पंचास्तिकाय', जीवन को नवीन रूप में परिणत कर रही हैं। मनुष्यों | 'बारसाणुवेक्खा', 'अष्टपाहुड' आदि प्राकृत भाषा के महान् में इन्द्रियसुख की लालसा वायुयान की गति को भी ग्रन्थों का पद्यानुवाद कर जिज्ञासुओं को मनन करने में परास्त कर रही है। अखिल विश्व संक्षिप्त प्रतीत होता | महान् सहयोग दिया है। पद्यानुवाद करने में उन्होंने ग्रन्थ है। इच्छारूपी घोड़े पर बैठा हुआ मनुष्य पंचेन्द्रिय सुख के भाव को पूर्णरूप से समझा है एवं मूलभूत भावना की लालसा में लिप्त है, किन्तु इसके हाथ में संयम | को अनूदित किया है। स्वामी समन्तभद्र आचार्य के रूप चाबी नहीं है, इसलिए गिरने पर वह चकनाचूर 'स्वयम्भूस्तोत्र' की सुन्दर हिन्दी-पद्यानुवादित अनोखी कृति हो जाएगा। इसकी तनिक भी भनक उसके हृदय में | 'समन्तभद्र की भद्रता' है। उसका यह नाम भी आचार्य नहीं है। चारों ओर अंधकार व्याप्त है। कैसा आश्चर्य! | जी ने बहुत भावपूर्ण रखा है। 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार', चकाचौंध के मध्य अँधेरा, सुविधाओं में विनाश और जो कि गृहस्थों के लिए एक आचारसंहिता की आधारशिला आपस में कलह । परन्तु यहाँ पर एक ऐसा व्यक्ति प्रासंगिक | है, उसको 'रयणमंजूषा' के रूप में अनूदित किया है है, जिसने बाल्यकाल से ही सांसारिक वैभव से मुँह | ताकि श्रावक-श्राविका किसी भ्रष्ट पथ में भटक न जाएँ
इन्द्रियजन्य सुख को तिलांजलि दे दी, | एवं चरणीय मार्ग का आचरण करें। आचार्य पूज्यपादऔर जिसने मानवमात्र के कल्याण के लिये आत्मालोचन | रचित ग्रन्थ 'इष्टोपदेश' का दो बार पद्यानुवाद कर किया तथा आत्मध्यान, आत्मचिन्तन में तल्लीन हो गया। आध्यात्मिक सुप्तावस्था को जागृत करने में वे सिद्धहस्त उसने विषयभोगों को ऐसा ललकारा कि वे मुँह छिपाकर | हुए हैं। गुणभद्राचार्य की कृति 'आत्मानुशासन' का भाग गए। ऐसे महर्षि-प्रणीत साहित्य का समाज पर गहरा | 'गुणोदय' के नाम से हुआ अनुवाद आपकी अलौकिक प्रभाव अवश्य पड़ेगा, क्योंकि ये शब्द तपस्या-निस्सृत | ज्ञानप्रतिभा का परिचायक है। आचार्य अमृतचन्द्र के
'समयसार-कलश' का अनुवाद 'निजामृतपान' (कलशापूज्य आचार्य विद्यासागर-रचित ग्रन्थ चिन्तनसाध्य | गीत) अपने आप में काव्यश्रृंखला का अनूठा ग्रन्थ है। हैं। उन्होंने भव्य श्रावक-श्राविकाओं को आशीर्वाद रूप | इसमें भाषा, भाव एवं संयोजन अपने आप में अनुपम में अन्य ग्रन्थ दिए हैं, जो जिस प्रकार ग्रहण करना चाहे | है। 'समणसुत्तं' ग्रन्थ का 'जैनगीता' के नाम से अनुवाद उस ज्ञानपुंज को प्राप्त कर सकता है। साहित्य की कसौटी । श्रावकों को भगवान् महावीर के सदुपदेशों को ग्रहण करने
हैं।
- दिसम्बर 2009 जिनभाषित 27
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