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________________ तपो वर्यमतो नान्यत्तपःस द्वादशस्वपि॥ ९५॥ । प्रश्नकर्ता- श्रीमती निर्मला कोठारी, पुणे। नोर्ध्वमन्तर्मुहूर्तात्सद्ध्यानमध्ययनं पुनः। जिज्ञासा- हम पूजा करते हैं, तो मात्र पुण्य बन्ध सदैनो निर्जराकारि किन्तु न स्यात्कृतात्मनाम्॥९६॥ | ही होता है, या निर्जरा भी होती है? अर्थ- जो अपने लिए हितकारी है, वह वाचनादि | समाधान- जिनपूजा करने से पुण्य का बन्ध तथा स्वाध्याय है और १२ प्रकार के तपों में, स्वाध्याय तप से निर्जरा दोनों होते हैं। कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि दूसरा श्रेष्ठ तप कोई नहीं है। ६/९५॥ | पूजा-भक्ति करने से अथवा शुभोपयोग से, मात्र पुण्यबंध अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सद्ध्यान नहीं है। परन्तु होता है, निर्जरा नहीं होती, ऐसी धारणा आगमसम्मत नहीं पुण्यात्माओं के पाप का निर्जराकारी स्वाध्याय निरंतर होता | है। इस संबंध में कुछ आगमप्रमाण इस प्रकार हैंहै। अर्थात् ध्यान अन्तर्महुर्त से अधिक नहीं हो सकता है | १. श्री धवला पु. १०, पृष्ठ २८९ पर इस प्रकार परन्तु स्वाध्याय तो निरंतर किया जा सकता है, जो | कहा हैपुण्यात्माओं के पाप की निर्जरा का कारणभूत है। "जिणपूजा वंदण-णमंसणेहि य बहुकम्म३. भगवती आराधना (गा.१०६) में इस प्रकार कहा | पदेसणिज्जवलंभादो।" अर्थ- जिनपूजा, वंदना और नमस्कारादि शुभ भावों वारसविहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिठे। से भी बहुत कर्मप्रदेशों की निर्जरा पाई जाती है। ण वि अत्थिण वि य होहिदि सज्झायसमं तवो कम्म॥१०६।। २. श्री पद्मपुराण ३२/१८३ में इसप्रकार कहा है अर्थ- सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये आभ्यंतर और बाह्य कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां, क्षयं भरत गच्छति। भेद सहित बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय के समान तप | क्षीणकर्मा पदं याति यस्मिन्ननुपमं सुखम्॥३२/१८३॥ क्रिया नहीं है, और न होगी ही। अर्थ- हे भरत! जिनेन्द्रदेव की भक्तिरूप शुभ भाव प्रश्नकर्ता- जितेन्द्र भाई मेहता, राजकोट। | से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिसके कर्म क्षीण जिज्ञासा- राग-द्वेष आदि जीव के परिणाम हैं, हो जाते हैं, वह अनुपम सुख से सम्पन्न परमपद अर्थात् इनको चेतन माना जाय या अचेतन और क्यों ? मोक्ष प्राप्त करता है। समाधान- द्रव्यानुयोग के शास्त्रों में रागद्वेष आदि ३. अमितगति श्रावकाचार में इसप्रकार कहा हैपरिणामों को भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से कहीं चेतनरूप कहा प्रशस्ताध्यवसायेन सञ्चितं कर्म नाश्यते। गया है और कहीं अचेतनरूप। श्री समयसार के कर्ता- काष्ठं काष्ठांतकेनेव दीप्यमानेन निश्चितम्।।८/५॥ कर्म अधिकार गाथा नं. ११६-११९ (सामण्ण पच्चया - अर्थ- जैसे जाज्वल्यमान आग से काठ का नाश ----- कम्माणि) की टीका में आचार्य जयसेन महाराज | होता है, वैसे ही शुभपरिणाम अर्थात् पुण्यरूप जीवपरिणाम ने इसप्रकार कहा है- "जीव और पुद्गल इन दोनों के | से संचित कर्म नाश को प्राप्त होता है। संयोग से उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्वरागादिरूप जो भाव- इस प्रकरण में यह भी जानने योग्य है कि मिथ्याप्रत्यय हैं, वे अशुद्ध उपादानरूप, अशुद्धनिश्चयनय से चेतन | दृष्टि जीव यथार्थ तत्व श्रद्धान न होने के कारण हैं, क्योंकि जीव से सम्बद्ध हैं, किन्तु शद्ध उपादानरूप | भोगों की प्राप्ति के भावों से जिनपूज शुद्धनिश्चयनय से ये सभी अचेतन हैं, क्योंकि पौद्गलिक | है, जिससे उसके मात्र पुण्य बन्ध होता है, निर्जरा नहीं होती। कर्म के उदय से हुए हैं। तात्पर्य यह है कि अशुद्ध । उपर्युक्त तीनों प्रमाण सम्यग्दृष्टि जीवों के संदर्भ में निश्चयनय आत्मा को विकारमय देखता है, अत: उसकी | ही मानने चाहिए। दृष्टि में रागादि भाव आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं इसलिए | जिज्ञासा- निद्रा के समय हम कुछ भी नहीं कर चेतन ही हैं। किन्तु शुद्ध निश्चयनय आत्मा को शुद्ध देखता | रहे होते हैं, तो उस समय हमें कर्मबन्ध भी नहीं होना है, तो वहाँ रागादिक भाव होते ही नहीं हैं, अतः उसकी | चाहिए। क्या ऐसा मानना उचित है? यह भी बताएँ कि दृष्टि में राग-द्वेष आदि भाव पुद्गलकर्म के उदय से होते | स्वाध्याय के समय भी क्या ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता हैं, इसलिए वे पौद्गलिक हैं और अचेतन हैं। है या नहीं? उपर्युक्त प्रकार से सही व्याख्या समझकर धारणा । समाधान- सप्तम गुणस्थान तक के प्रत्येक जीव बनानी चाहिए। -दिसम्बर 2009 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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