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समवाय से कार्य की उत्पत्ति मानता है, वह सम्यग्दृष्टि | में ही पुष्पफलादि का उद्गम होता है। जो यह कहा है, अपितु आशय यह है कि किसी भी कारण से सभी | जाता है कि काल एक रूप है, अतः उसे जगत् के कार्यों की उत्पत्ति माननेवाला मिथ्यादृष्टि है और प्रत्येक | कार्यों का कारण मानने पर उनमें विभिन्नता दृष्टिगोचर कारण को किसी न किसी कार्य का उत्पादक माननेवाला | नहीं हो सकती, यह दोष हमारे मत में नहीं आता, क्योंकि सम्यग्दृष्टि है।
हम केवल काल को ही कारण नहीं मानते, अपितु कर्म इस तथ्य की पुष्टि 'सूत्रकृतांग' (श्वेताम्बरग्रन्थ) | को भी मानते हैं, उसी से जगत् के कार्यों में विभिन्नता एवं उसकी टीका के निम्नलिखित वचनों से होती है- | है। इसी तरह ईश्वर भी कर्ता है। आत्मा ही विभिन्न
एवमेयाणि जंपंता बाला पंडिअमाणिणो। | योनियों में उत्पन्न होकर समस्त जगत् में व्याप्त हो जाने निययानिययं संतं अयाणंता अबुद्धिया। से ईश्वर है। सुख-दुःखोत्पत्ति में उसका कारण होना
(सत्रकतांग १/२/४) | सभी वादियों को स्वीकार है। स्वभाव भी कथंचित् कर्ता अर्थात् सुख-दुःखादि सब नियतिकृत हैं ऐसा | है ही। उदाहरणार्थ, आत्मा का उपयोग-स्वभाव तथा कहनेवाले बुद्धिहीन हैं, क्योंकि सुख-दुखादि नियतिकृत
असंख्येयप्रदेशत्व, पुद्गल का मूर्तत्व, धर्म-अधर्म द्रव्यों भी हैं और अनियतिकृत भी
की गतिस्थिति-हेतुता तथा अमूर्तत्व आदि स्वभावजन्य इसे स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं
हैं तथा कर्म भी कारण हैं, क्योंकि वे जीव के प्रदेशों "आर्हतानां किञ्चित्सुखदुःखादि नियतित एव
के साथ परस्परावगाहरूप से स्थित होने के कारण कथंचित भवति तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यम्भा
आत्मा से अभिन्न हैं और उनके वशीभूत होकर आत्मा व्युदय सद्भावान्नियतिकृतमित्युच्यते तथा किञ्चिद
नारक, तिर्यक्, मनुष्य एवं देव योनियों में भ्रमण करता नियतिकृतंच, पुरुषकार-कालेश्वरस्वभावकर्मादिकृतम्।'
हुआ सुख-दुःखादि भोगता है। इस प्रकार नियति और भाव यह है कि जैनों के मतानुसार कछ सख- | अनियति का कर्तृत्व (कारणत्व) युक्ति द्वारा सिद्ध हो दुःखादि कार्य नियति से ही होते हैं, क्योंकि सुख-दुःखादि
जाने पर नियति को ही एकमात्र कर्ता माननेवाले बद्धिहीन के कारणभूत कर्म का किसी काल में उदय अवश्यभावी
ठहरते हैं।" होने से वे नियतिकृत कहलाते हैं तथा कुछ अनियति
यहाँ १. नियति, २. पौरुष, ३. काल, ४. ईश्वर, से अर्थात् पौरुष, काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म आदि से | ५. स्वभाव, ६. अदृष्ट
| ५. स्वभाव, ६. अदृष्ट और ७. कर्म की कारणात्मकता उत्पन्न होते हैं।
भिन्न-भिन्न कार्यों के द्वारा सिद्ध की गई है। कोई एक यहाँ 'किञ्चित् सुख-दुःखादि' (कुछ सुख-दुखादि |
कार्य सभी की कारणात्मकता सिद्ध करने के लिए उदाहरण कार्य) शब्दों से स्पष्ट है कि नियति. काल. ईश्वर आदि | रूप में प्रस्तुत गहीं किया गया, क्योंकि ऐसा कोई कार्य प्रत्यय विशेष-विशेष कार्यों के कारण है. सभी के नहीं। हो ही नहीं सकता। जगत् में जो विभिन्नता है उसके यह बात उक्त गाथा के टीकाकार द्वारा किये गये लिए कर्म को ही कारण बतलाया गया है, काल आदि निम्नलिखित विवेचन से भी प्रकट होती है
को नहीं। जीवादि द्रव्यों के जो स्वभाव हैं वे स्वभावजन्य "सुख-दुःखादि कथंचित् पौरुष द्वारा भी साध्य हैं, | ही प्रतिपादित किये गये हैं, नियति, काल, ईश्वर आदि क्योंकि क्रिया से ही फल प्राप्त होता है और क्रिया पौरुष की उनमें कोई हेतुता नहीं दर्शाई गई। जीव के नरक. के अधीन है। कहा भी गया है- 'भाग्य से ही सब | तिर्यक् आदि योनियों में भ्रमण के लिए कर्म को उत्तरदायी कुछ होता है ऐसा सोचकर मनुष्य को अपना उद्यम नहीं ठहराया गया है, स्वभाव आदि को नहीं। इससे सिद्ध छोड़ना चाहिए, क्योंकि तिल में तेल होने पर भी उद्यम | है कि नियति, काल आदि कारण भिन्न-भिन्न कार्यों के बिना वह किसे प्राप्त हो सकता है? पौरुष की भिन्नता | के हेत हैं, प्रत्येक के नहीं। अतः प्रत्येक कार्य की होने पर फल में भी भिन्नता हो जाती है तथा समान उत्पत्ति में पाँच या सभी कारणों की अनिवार्यता आगम पौरुष करने पर भी जो किसी को फल प्राप्त होता है, को मान्य नहीं है। यहाँ (सूत्रकृतांग में) भी पाँच कारण किसी को नहीं इसमें अदृष्ट (दैव) कारण होता है, नहीं, अपितु सात बतलाये गये हैं अत: पंचकारणसमवाय उसे भी हमने कारण के रूप में स्वीकार किया ही है। | का आगमोक्त होना सिद्ध नहीं होता। (अपूर्ण) इसी प्रकार काल भी कर्ता है, क्योंकि बकुल, चम्पक,
. ए / २, शाहपुरा, भोपाल-४६२ ०३९ पुन्नाग, नागकेसर, आम्र आदि में विशेष काल (ऋत)
दिसम्बर 2009 जिनभाषित 17
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