SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पं० टोडरमल जी और शिथिलाचारी साधु स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व और चारित्र का ही सर्वाधिक महत्त्व है। इसलिए गुणस्थानों का क्रम सम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा से है, ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है। ज्यों ज्यों चारित्र बढ़ता जावेगा, त्यों त्यों ही आत्मा ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता जावेगा। ऐसी बात ज्ञान की वृद्धि के साथ नहीं है, ज्ञान बढ़ता रहे तब भी गुणस्थान बढ़ता नहीं। जिन देव-शास्त्र-गुरु की हम नित्य पूजा करते । एक भी संयमी (महाव्रती) नहीं है। हैं, उनमें देव शास्त्र के साथ गुरु का नाम भी जुड़ा उक्किठ्ठसींह चरियं बहुपरियम्मो य गरुयभारो य। हुआ हैं। इससे प्रगट होता है कि गुरु यानी मुनि का जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं॥९॥ पद भी कम महत्त्व का नहीं है। गुरु के लिये एक सुत्तपाहुड कवि ने यहाँ तक लिख दिया है कि 'वे गुरु चरण अर्थ- जो स्वच्छन्द अर्थात् जिनसूत्र का उल्लंघन धरे जहाँ जग में तीरथ होइ।' ऐसे महान् पद के धारी | कर प्रवर्तता है, वह उत्कृष्ट सिंह-चारित्र का धारी, मुनि भी केवल वेषमात्र से ही मुनि न होने चाहिए, किन्तु | बहुपरिकर्मवाला और गच्छनायक ही क्यों न हो, तब भी वेष के अनुसार उनमें मुनिपने का वह उज्ज्वल चारित्र | वह पापी और मिथ्यादृष्टि ही है। भी होना चाहिये, जो मुनियों के आचारशास्त्रों में लिखा | भावविसुद्धणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड-श्रावकाचार बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंजुत्तस्स॥ ३॥ में गुरु का लक्षण इस प्रकार लिखा है भावपाहुड विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः। अर्थ- भावों को निर्मल रखने के लिये बाहर में ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ | परिग्रहों का त्याग किया जाता है। त्याग करके भी, जो अर्थ- जो इन्द्रियों के विषयों की आशा से दूर | अभ्यंतर परिग्रह अर्थात् विषयकषायादि का धारी है, तो रहता हुआ आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान-तप उसका बाह्यत्याग निष्फल है। में तल्लीन रहता है, वही प्रशंसनीय मुनि कहलाता है। भावविमुत्तो मुत्तो णय मुत्तो बंधवाइमित्तेण। इस महान् पद की सुरक्षा के लिए हमारे पूर्वाचार्यों इय भाविऊण उज्झसु गंथं अब्भंतरं धीरा॥ ४३॥ ने मुनियों के शिथिलाचार पर बड़ी कड़ी दृष्टि रक्खी देहादिचत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर। है। वेषमात्र को तो उन्होंने आदरणीय ही नहीं माना है। अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं॥ ४४ ।। उन्होंने इस दिशा में सावधान रहने के लिए मुनिभक्तों - भावपाहुड को जो आदेश दिया है, उसके कुछ नमूने हम यहाँ अर्थ- जो रागादिभावों का त्यागी है, वही त्यागी लिख देना उचित समझते हैं- . माना जाता है। केवल कुटुम्बादि के त्याग कर देने मात्र सबसे पहिले इस विषय में हम महर्षि कुन्दकुन्द से कोई त्यागी नहीं कहलाता है। हे धीर! ऐसी भावना की वाणी उद्धृत करते हैं रखकर तू अभ्यन्तर परिग्रह जो रागादि भाव उनका त्याग अस्संजद ण वंदे वत्थविहीणोवि सो ण वंदिज्जो। | कर। (४३)। दोण्णिवि होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि॥ २६॥ देहादि से ममत्व त्याग, परिग्रह छोड़कर कायोत्सर्ग दसणपाहुड़ में स्थित हुए बाहुब | में स्थित हुए बाहुबली मानकषाय से कलुषितचित्त हुए अर्थ- असंयमी कहिये जो कि महाव्रती नहीं है. | कितने ही काल तक (एक वर्ष तक) आतापन योग गृहस्थ है उसकी वन्दना न करें। और जो वस्त्र त्याग | में रहे, तो उससे क्या हुआ? कुछ भी सिद्धि न हई। कर नग्नलिंगी बन गया है, परन्तु सकल संयम का पालन भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण । नहीं करता है, वह भी वन्दना के योग्य नहीं है। दोनों कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण॥ ५४॥ ही यानी गृहस्थ और मुनिवेषी एक समान हैं। दोनों में । भावपाहुड -दिसम्बर 2009 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524346
Book TitleJinabhashita 2009 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy