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________________ भी दो द्रव्य विषयक हो रहा हो, पर आपेक्षित सूक्ष्मता उसे निश्चय का कथन कह दिया गया है । यथा 'व्यवहार से काल प्राणी मात्र की आयु खाता है । निश्चयनय से काल मात्र पदार्थ का रूपान्तर करता है, पर्यायान्तर करता है।' ( श्रीमद् राजचन्द्र १ / ३५१, आलापपद्धति, प्रस्ता० पृ० २,३ शान्तिवीर दिगम्बर जैन संस्थान श्री महावीर जी ) । समयसार में भी क्वचित् दो द्रव्य विषयक कथन निश्चय का कहा गया है। यथा-"जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुः कर्मोदयेनैव अतो जीवयामि जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ॥ ( समयसार / आ० ख्या० / २५१असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से सद्भूत ५२ ) " मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुः कर्मक्षयेणैव -- व्यवहार को निश्चय कर गया है- ततो हिनस्मि हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्" ॥ २४८ववहारस्स दु आदा कम्मं करेइ णेयविहं । ४९ ॥ ( समयसार / आ० ख्या० ) । तं चैव पुणो वेयइ पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥ ८४ ॥ णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ ८३ ॥ (समयसार ) व्यवहारनय का यह मत है कि आत्म अनेक प्रकार अर्थात् निश्चयनय से जीवों का जीवित रहना अपने आयुकर्म के उदय से ही है---अतः मैं अन्य को जीवित रखता हूँ, अन्य द्वारा में जीवित किया जाता हूँ, यह निश्चय ही अज्ञान है । निश्चय से जीवों का मरना उनके अपने आयुकर्म के क्षय से ही होता ---अतः मैं अन्य को मारता हूँ या अन्य द्वारा मैं मारा जाता हूँ यह ध्रुव- निश्चय से अज्ञान है। के पुद्गल कर्मों को करता है और भोगता है । निश्चयनय का यह मत है कि आत्मा ( कर्मोदय व अनुदय से होने वाले) अपने भावों (परिणमन) को ही करता है व भोगता है । निश्चयनय का विषय अभेद है, अतः निश्चयनय की दृष्टि में फर्ता-कर्म का भेद सम्भव नहीं है। सद्भूत व्यवहार नय का विषय भेद है। अतः कर्त्ता-कर्म का भेद सद्भूतव्यवहार की दृष्टि से सम्भव है। आत्मा पुद्गल कर्मों को करता व भोगता है- यह असद्भूत व्यवहारनय का कथन है, क्योंकि पुद्गल कर्म और आत्मा, इन द्रव्यों का सम्बन्ध बताया गया । इसलिए यहाँ पर असद्भूतव्यवहार नय की अपेक्षा सद्भूतव्यवहार के कथन को निश्चयनय का कथन कहा गया है । एवमेव शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय को व्यवहार कहा गया है 'द्रव्यकर्माण्यचेतनानि भावकर्माणि च चेतनानि तथापि शुद्धनिश्चयनयापेक्षया अचेतनान्येव । यतः कारणादशुद्ध-निश्चयनयोऽपि शुद्धनिश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव । ' ( समयसार, गाथा ११५ की टीका) कहीं स्थूल कथन की अपेक्षा सूक्ष्म कथन को निश्चयनय का विषय कहा गया है, चाहे वहाँ सूक्ष्मकथन । जीव दूसरे जीव को मारता है, सुखी- दुःखी करता है, । किन्तु अनुपचारित असद्भूत व्यवहार-नय की दृष्टि से अपने कर्म ही जीव को सुखी दुःखी करते हैं । समयसारकलश १६८ में कहा भी है 'सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्' अर्थात् इस जगत में जीवों के मरण, जीवन, दुःख-सुख सब सदैव नियम से ( निश्चय से) अपने कर्मोदय से होते हैं । यह कथन यद्यपि अनुपचरित असद्भूत-व्यवहार-नय की दृष्टि से है, तथापि उपचरित असद्भूत-व्यवहारनय की अपेक्षा इसको 'निश्चय' कहा गया है। Jain Education International **** नोट- इस समयसार के कथनानुसार "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" तत्त्वार्थसूत्र का यह वाक्य कि एक जीव दूसरे का उपकार करता है, यह बात व्यवहार से ही सम्भव है तथा 'रावण ने लक्ष्मण को (अमोघविजया नामक शक्ति से) घायल कर दिया--- अन्त में लक्ष्मण ने रावण को मारा।' (प० पु० सर्ग ७६ श्लोक ३४), 'कृष्ण द्वारा कंस मारा गया' (हरिवंशपुराण ३६ / ४५), 'सगर चक्री के ६०,००० पुत्र नागेन्द्र की क्रोधाग्नि की ज्वाला द्वारा मारे गये' ( पद्मपुराण ५ / २५१-५२ ) इत्यादि ये सब वाक्य यद्यपि सत्य हैं, परन्तु दो द्रव्य (वे भी संश्लेष- संबंधरहित) विषयक हैं, अतः यह सब सत्य उपचरित असद्भूत व्यवहार नय का विषय है और अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय संश्लेष- संबंध - सहित दो वस्तुओं का विषय है। 'संश्लेष - सहित - वस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितअसद्भूतव्यवहारो यथाजीवस्य शरीरमिति।' (आ. प. २२८ पृष्ठ ३५ ) । For Private & Personal Use Only दिसम्बर 2008 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org
SR No.524334
Book TitleJinabhashita 2008 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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