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________________ 6 देवता को अनर्पित द्रव्य 'शेषा' नहीं जो पूजा सामग्री देवता को चढ़ाने से बच जाती है, वह शेषा नहीं है। पं० दौलतराम जी ने उसे ही शेषा (आशिका) माना है । (चर्चा समाधान / चर्चा ८०/ पृ. ७३) । पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य का भी यही मत है। (आदिपुराण / भा. २ / पर्व ३९ / श्लोक ९६ - ९७ का अनुवाद) । किन्तु यह समीचीन नहीं है । 'जिनेन्द्रपादाम्बुरुहार्पणेन---' ( वरांगचरित / २३ / १०२) तथा 'मान्यमेवं जिनाङ्घ्रिस्पर्शनान्माल्यादिभूषितम्' (आदिपुराण / ४२/२६), इन उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि जिनेन्द्र को अर्पित द्रव्य ही 'शेषा' शब्द से अभिहित किया गया है। पूज्यपादविरचित महाभिषेकपाठ के निम्नलिखित पद्यांश में भी जिनेन्द्र के पादपद्म की अर्चना करनेवाले पुष्पादि को ही 'शेषा' कहा गया है पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपतेः पादपद्मार्चितां श्री शेषां सन्धार्य मूर्ध्ना जिनपतिनिलयं त्रिःपरीत्य त्रिशुद्धया - - - ॥ ४० ॥ जिनेन्द्र को अनर्पित सामग्री जिनेन्द्रचरणों से स्पृष्ट न होने के कारण पवित्र और पुण्यास्रवहेतु नहीं होती, अतः उसमें शेषा के गुण नहीं होते। वह सामान्यद्रव्यवत् ही होती है। ‘उमास्वामी-श्रावकाचार' के निम्नलिखित श्लोक में भी निर्माल्य (देवता को चढ़ाये गये) द्रव्य को ही शेषा कहा गया है लम्भयन्त्युचितां शेषां जैनीं पुष्पैस्तथाक्षतैः । स्थिरीकरणमेतद्धि धर्मप्रोत्साहनं परम् ॥ ३९ / ९७ ॥ सितम्बर 2008 जिनभाषित इसका अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं० हीरालाल जी शास्त्री, न्यायतीर्थ ने इस प्रकार किया है - " यद्यपि निर्माल्य वस्तु का ग्रहण करना दोषकारक है, तथापि गन्धोदक को ग्रहण करना शुद्धि के लिये, और आशिका को ग्रहण करना सन्तानवृद्धि के लिये माना गया है। इसी प्रकार तिलक के लिए सुगन्धित चन्दन- केशर को ग्रहण करनेवाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता । " ( उमास्वामि श्रावकाचार / श्रावकाचारसंग्रह / भाग ३ / पृ. १६४ - १६५ ) । यहाँ निर्माल्य वस्तुओं में से केवल गन्धोदक, शेषा (अक्षत - पुष्प) तथा चन्दन - केशर का ग्रहण निर्दोष माना गया है, शेष का सदोष । इससे सिद्ध है कि शेषा निर्माल्य ( देवता को चढ़ायी गयी ) वस्तु ही है । महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने भी 'जयोदय' महाकाव्य में लिखा है कि राजा जयकुमार जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से केशर उद्धृत कर अपने ललाट पर तिलक किया प्राकारि भाले तिलकं च तेन जिनाङ्घ्रिपद्मोत्थितकेशरेण । योगोऽभवन्मङ्गलदीपकस्य सुधांशुनेवोदयिना प्रशस्यः ॥ १९/४८ ॥ ये वचन इस तथ्य की उद्घोषणा करनेवाले आर्ष प्रमाण हैं कि निर्माल्य, मंगल ( पापविनाशक एवं पुण्यवर्धक) द्रव्य है, अतएव भक्त को उसे अपने उत्तमांग (ललाट) पर धारण करना चाहिए । इस प्रकार यदि ठौने पर चढ़ाये गये पुष्पों को शेषा (आशिका) के रूप में मस्तक पर धारण करने योग्य माना जाता है, तो इस तरह भी यह सिद्ध होता है कि वे निर्माल्य ही हैं । अतः द्रव्यार्पण - थाली में क्षेपण किये जाने पर यदि संकल्पपुष्प निर्माल्य हो जाते है, तो इससे तो वही कार्य सम्पन्न होता है, जो ठौने पर चढ़ाये जाने पर होता है। अतः अलग से ठौना रखने की कोई उपयोगिता नहीं है। रतनचन्द्र जैन Jain Education International गन्धोदकं च शुद्धयर्थं शेषां सन्ततिवृद्धये । तिलकार्थं च सौगन्ध्यं गृह्णन् स्यान्नहि दोषभाक् ॥ १४५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524331
Book TitleJinabhashita 2008 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2008
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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