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आत्म विकास के दस सोपान
भारतीय तत्त्व मनीषा' जगत् में गुरुता को प्राप्त है । विश्व - दर्शन भौतिक पदार्थों की ही खोज करते रहे, पुद्गलों में ही अपने ज्ञान की शक्ति का प्रयोग करते रहे। वहीं भारत में भौतिक द्रव्यों को गौण करते हुए आत्म-विकास की खोज की गई। आत्मा को परमात्मा कैसे बनाया जा सकता है? यह विद्या यदि विश्व में कहीं है, तो यह भारतीय जैनदर्शन में ही है। यहाँ किसी एक निश्चित आत्मा को भगवान् बनाकर अधिष्ठित नहीं किया गया, अपितु प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है । परमात्मा बनने के लिए आत्मगुणों का क्रमिक विकास करना होता है, दुर्गुणों का बुद्धिपूर्वक त्याग करना होता है। त्यागमार्ग ही संयम मार्ग है। जीवन को संयमित करके ही परम अवस्था की प्राप्ति संभव है ।
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आत्मसाधक प्रतिपल आत्मा की साधना करते हैं, फिर कुछ समय ऐसा आता है, जो मंगलभूत होता है। इसे कालमंगल भी कहते हैं। लोक में ऐसे दिनों को दशलक्षणपर्व की संज्ञा दी जाती है। सत्यार्थ में, तो यह पर्व के दिन विषयों की पूर्ति के नहीं होते, अपितु आत्मासाधना के होते हैं। खाना-पीना, पिकनिक मनाना यह पर्व का लक्षण नहीं है। जैनदर्शन में पर्व उसे कहा जाता है, जो आत्मा को पवित्र करे, आत्मा की विषयों और कषायों से रक्षा करे । आगम ग्रंथों में दो प्रकार के पर्वों का वर्णन मिलता है। एक शाश्वत पर्व, एक नैमित्तिक पर्व । शाश्वत पर्व वह होते हैं, जो त्रैकालिक होते हैं और अनादिकाल से सनातन हैं, वे शाश्वत पर्व कहलाते । हैं, जैसे अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका और पर्युषण पर्व अर्थात् दशलक्षण धर्म पर्व । ये अनैमित्तिक पर्व हैं और सृष्टि के प्रारम्भ से ही चले आ रहे हैं। नैमित्तिक पर्व वे होते हैं, जो किसी घटना विशेष से संबंध रखते हैं, जैसे भगवान् महावीर स्वामी का जन्म - दिवस, 'महावीर जयंती' मनाते हैं। 700 मुनिराजों का उपसर्ग दूर हुआ था श्रावण पूर्णिमा को, इसलिये उस दिन को रक्षाबंधन पर्व के रूप में मनाते हैं, भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण से दीपावली पर्व मनाते हैं, ये सब नैमित्तिक पर्व हैं।
पर्वराज दशलक्षण - धर्म पर्व पर आज ध्यान देना है कि, धर्म वास्तव में वस्तु का स्वभाव है । वस्तुस्वभाव
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आचार्य श्री विशुद्धसागर जी
को छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं हैं, जैसे पानी का धर्म शीतलता, अग्नि का धर्म उष्णता है, इसी प्रकार आत्मा का धर्म उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य है और ये धर्म आत्मा को छोड़कर नहीं होते। जिसके अंदर धर्म के ये 10 लक्षण घटित होते हैं, यथार्थ में वही धर्मात्मा है। जिसमें ये नहीं दिखते, वहाँ धर्म - शून्यता ही समझना चाहिये ।
संक्षेप से दस धर्मों के लक्षण
1. उत्तम क्षमा धर्म- क्रोध की उत्पत्ति के निमित्त, असह्य आक्रोश आदि के संभव होने पर भी कालुष्य भाव का नहीं होना क्षमा-धर्म है, तथा क्रोध नहीं करना, साम्यभाव को धारण करना और इन्हें कर्म का उदय समझकर समता को प्राप्त होना ही उत्तम क्षमा-धर्म है, इसलिये 'क्षमा वीरों का आभूषण है' ।
2. उत्तम मार्दव धर्म- उत्तम जाति, कुल, रूप विद्वत्ता, ऐश्वर्य, श्रुत- ज्ञान, लाभ, वीर्य की शक्ति आदि से युक्त होने पर भी तत्कृत मद / अभिमान का अभाव होना तथा दूसरों के द्वारा पराभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान नहीं होना उत्तम मार्दवधर्म है ।
3. उत्तम आर्जव धर्म- मन, वचन, काय की सरलता आर्जव धर्म है, अथवा मन-वचन-काय की कुटिलता का अभाव आर्जव-धर्म है।
4. उत्तम शौच धर्म- आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति शौच है और पवित्रता (शुचिता) का भाव एवं कर्म उत्तम शौच-धर्म है ।
5. उत्तम सत्य धर्म- सज्जनों के साथ साधुवचन बोलना सत्य है। प्रशंसनीय मनुष्यों के साथ प्रशंसनीय वचन बोलना उत्तम - सत्य-धर्म है । असत्य भाषण नहीं करना तथा कठोर एवं निंदनीय संभाषण नहीं करना उत्तम सत्य धर्म है।
6. उत्तम संयम धर्म- प्राणी एवं इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना उत्तम संयम धर्म है ।
7. उत्तम तप धर्म- कर्म-क्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। विषय कषायों का निग्रह कर ध्यान, सितम्बर 2008 जिनभाषित 13
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