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के मुख से सुनने को मिल रहा है। पूजन, अभिषेक, । खुलते चले जा रहे हैं, और दाताओं का पैसा न्याय और दान, उपवास, शीलाचार इत्यादि क्रियायें मात्र पुण्यबंध न्यायालयों में जा रहा है। के लिए कारण हैं, उनसे निर्जरा नहीं होती। क्या यह कुण्डलपुर में जब हमारा चातुर्मास चल रहा था, सत्य है? यदि सत्य नहीं है, तो क्या असत्य है? यह उस समय वर्णी ग्रंथमाला के बारे में झगड़ा चल रहा असत्य है, तो इसके माध्यम से जिनवाणी विकृत नहीं था। मैंने कहा कि वर्णी जी, तो क्षुल्लक जी थे, उनको होगी? जो सत्य पथ पर चल रहे हैं, वे उससे भ्रमित | इससे कोई मतलब नहीं था, लेकिन उनके माध्यम से नहीं होंगे क्या? अवश्य होंगे, आज यह कोई नहीं कहता | आज झगड़ा क्यों हो रहा है, जहाँ पर पैसा रहेगा वहाँ कि भक्ति करना कितना आवश्यक है?
पर झगड़ा नियम से होगा, तो स्वाध्याय कहाँ हुआ? _____ मैं यह बात एक बार नहीं, बार-बार कहूँगा कि दक्षिण में बहुत अच्छी प्रथा है, किसी मंदिर में स्वाध्याय को मात्र धनोपार्जन का साधन न बनायें। और | पैसा नहीं मिलेगा, इसका क्या मतलब है? मंदिरों के जो अच्छे विद्वान् हैं, उन्हें वेतन नहीं देना चाहिए, उनको | पीछे कोई धन-सम्पत्ति की बात नहीं होना चाहिए। पुरस्कृत करके, उनके माध्यम से अपने ज्ञानादि को | निष्परिग्रही भगवान् बैठे हैं। उस मंदिर के पीछे इतना विकसित करना चाहिए।
वेतन, इतना किराया, इसी में झगड़ा होने लगता है। एकहमने उन विद्वानों को एक हजार, दो हजार रुपया | एक मंदिर के पीछे आज लाखों का किराया आता है। मासिक वेतन दे दिया, यह कोई उनका मूल्य नहीं है। भैया! यह सब किसके माध्यम से होता है? मंदिर के हजारों व्यक्ति जिसका वाचन करते, सुनते हैं, स्वाध्याय | माध्यम से। फिर ट्रस्टी, मंत्री, अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष आदि करते हैं, मात्र इतने में ही उसका काम हो जायेगा? | बनते हैं। इसलिये आचार्यों को लिखना पड़ा कि "जो नहीं वह अनमोल निधि है। आज ऐसे भी ग्रन्थ देखने | धर्म का खाता है, वह सीधा नरक में जाता है।" जो को मिलते हैं, जिनमें लिखा रहता है 'सर्वाधिकार सुरक्षित।' | दान का दिया हुआ द्रव्य है उसके प्रति नि:स्पृहवृत्ति: जब आचार्य वीरसेन, आचार्य गुणभद्र के धवला, जयधवला | होनी चाहिए। दान में दिया हुआ धन अपने उपयोग में महाधवला, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि और | नहीं लेना चाहिए, किन्तु आज बहुत सी इस प्रकार की उमास्वामी महाराज का तत्त्वार्थसूत्र आदि जितने भी ग्रन्थ | बातें जैनसमाज में भी आ चुकी हैं, यह महान् रूढ़िवाद हैं, वे सब सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। यह कर्तृत्वबुद्धि का | है, यह कोई छोटी-मोटी रुढ़ि नहीं है, इसको पहले महान् मोह है, यह स्वामित्व का व्यामोह है। जब एक | निकालना चाहिए। वस्तु का अधिकार दूसरी वस्तु पर नहीं रहता है, तो | आज संस्थाओं को लेकर जितने झगड़े हो रहे हम उनकी कृतियों पर अधिकार कैसे कर सकते हैं? | हैं, उतने इतिहास में कभी नहीं मिलते। आज विद्यालयों, दूसरा व्यक्ति यदि प्रकाशित करना चाहे, तो वह कर | संस्थाओं, ग्रन्थालयों, सबमें झगड़ा चल रहा है और कुछ नहीं सकता, यह बात तो बिल्कुल गलत है, हाँ उस | नहीं, वहाँ केवल कुर्सी रहती है, डेकोरेशन रहता है ग्रन्थ का सम्पादन, संशोधन कोई दूसरा व्यक्ति न करे, | और विद्यार्थियों की संख्या केवल 5-6 है, मास्टरों की यह तो फिर भी ठीक है। लेकिन अधिकारवाली बात, संख्या कितनी है? यह सुनकर आपको हँसी आयेगी। तो होना ही नहीं चाहिए। जब बड़े-बड़े आचार्यों ने उसके 5-6 विद्यार्थी और 10 मास्टर। यूनिवर्सिटी में जैनधर्म ऊपर अधिकार नहीं चलाया, तो आप 'सर्वाधिकार सुरक्षित' | के विषय रखे जा रहे हैं। जैनधर्म पढ़ाया जायेगा, बहुत लिखनेवाले कौन होते हैं? कुन्दकुन्ददेव ने अनेक बड़े- | अच्छी बात है, लेकिन जैनधर्म पढ़नेवाले विद्यार्थी हैं बड़े ग्रन्थ लिखे, उनमें कहीं भी अपने नाम तक का | या नहीं, यह पहले देखना अनिवार्य है। उल्लेख नहीं किया।
_मूलकार्य जो आवश्यक था, वह तो नहीं होता दान का महत्त्व वर्तमान में कम होता जा रहा | और संस्थायें खुलती जा रही हैं। सत्य का प्रदर्शन आचरण है। पहले किसी दाता ने दान दिया, तो उसका उपयोग से होता है, मात्र बातों से नहीं। सत्य और असत्य को दूसरी बार नहीं होता था। दूसरी बार के लिए कोई ग्रन्थ | उद्घाटित करनेवाला कौन होता है? बस! एक उदाहरण अन्य दाता दान देता था और आजकल ट्रस्ट पर ट्रस्ट | देकर मैं समाप्त कर रहा हूँ।
8 सितम्बर 2008 जिनभाषित
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