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सम्पादकीय
स्वागत,
गुणायतन
समय बदल रहा है। धर्म प्रभावना के निमित्तों में कभी वैभव प्रदर्शन को मुख्यता दी जाती थी । किंतु अब आकर्षक रूप में तर्कणा के आधार पर वैज्ञानिक पद्धति से धार्मिक सिद्धांतों की प्ररूपता धर्म प्रभावना का मुख्य अंग हो गया है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व में ही महान् तार्किक आचार्य समंतभद्र स्वामी ने धर्म के बारे में जन साधारण के अज्ञान अंधकार को दूरकर उनके हृदयों में युक्तियुक्त समीचीन जैनधर्म के माहात्म्य का प्रभाव अंकित करना धर्म प्रभावना कहा है।
भारत भूमि पर जैनियों का सबसे बड़ा एवं सबसे अधिक महत्त्ववाला तीर्थ श्री सम्मेदशिखर है जिसको शाश्वत तीर्थराज कहा जाता है। यहाँ वंदना के लिये अथवा पर्यटन के लिए प्रतिवर्ष लाखों जैन अजैन यात्री आते हैं। यहाँ दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के अनेक विशाल मंदिर बने हुए हैं तथा बन रहे हैं। किंतु यात्रियों एवं पर्यटकों को इस वैज्ञानिक जैनधर्म के सिद्धांतों का सामान्य परिचय कराने वाला कोई आकर्षक प्रभावक आयतन अभी तक नहीं बना है। इस अभाव की ओर दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के महान् संत परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रभावक शिष्य परम पूज्य श्री प्रमाणसागर जी महाराज का ध्यान गया और उनके मन इस तीर्थराज की भूमि पर ऐसे आकर्षक आयतन के निर्माण की योजना जागी जिसमें आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के द्वारा प्रकाश एवं ध्वनि के माध्यम से आत्मा के पतन से उत्थान की यात्रा के स्वरूप और कारणों पर सरल भाषा में प्रकाश डाला जाये । पूज्य मुनिश्री ने योजना की एक स्थूल रूपरेखा परम पूज्य आचार्यश्री के पास भिजवाई। उन्होंने योजना पर गहन विचारणा कर अपनी मंगल सहमति प्रदान की किंतु साथ ही यह निर्देश दिए कि योजना का आकार समय में पूर्ण होने की संभावना में बाधक न हो एवं आयोजकों एवं निदेशकों के लिए किसी भी प्रकार की आकुलता का कारण नहीं बने। परम पूज्य आचार्यश्री का मंगल आशीर्वाद पाकर मुनिश्री ने कतिपय श्रद्धालु प्रबुद्ध श्रावकजनों को योजना के प्रारूप का परिचय कराया । अत्यंत हर्ष का विषय है कि उन प्रबुद्ध श्रावकजनों ने योजना को सराहा और उत्साहपूर्वक इसकी पूर्णता के लिए प्रयत्नशील होने की भावना प्रकट की । इस योजना की पूर्णता एवं सफलता के सूचक के रूप में अप्रत्याशित रूप से इसके लिए अत्यंत उपयुक्त भूमि की व्यवस्था सहजता से हो गई ।
आयतन का नाम 'गुणायतन' रखने का निर्णय लिया गया। यह जीव अनादिकाल से विषयकषाय रूप अवगुणों से युक्त होकर संसार परिभ्रमण करते हुए दुःख पा रहा है। इस अवगुण युक्त स्थिति से किस प्रकार किस उपाय से छूटकर अपनी आत्मा में सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रादि गुणों को उद्भूत कर सकता है और अंत में आत्मा की स्वाभाविक गुणयुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकता है इसका दिग्दर्शन जैनधर्म में वर्णित जीव के गुणस्थानों के क्रमिक विकास की कथा से होता है ।
जैनधर्म ने ईश्वर का अस्तित्व जन्म से स्वीकार नहीं किया है अपितु यह माना है कि साधारण व्यक्ति भी कर्म से ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। उस ईश्वरत्व के विकास के लिए जिस कर्म को कारण माना गया है वह सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चरित्ररूप रत्नत्रय है । रत्नत्रय की साधना का नाम ही धर्म है । प्रत्येक जीव में ईश्वरत्व शक्ति/गुण है और उसकी उद्भूति रत्नत्रय धर्म के क्रमिक विकास के द्वारा की जा सकती है। विश्व को जैनदर्शन की यह मौलिक देन है कि वह व्यक्ति से भगवान्, नर से नारायण, पतित से पावन, आत्मा से परमात्मा बनने का प्रत्येक जीव को अधिकार प्रदान करता है। ईश्वर बनना अथवा आत्मगुणों की प्राप्ति किसी की कृपा से नहीं अपितु स्वयं के श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण के विकास के लिए किए गए पुरुषार्थ से ही संभव है । ईश्वरत्व की प्राप्ति की योग्यता के विश्वास से व्यक्ति में
मार्च 2008 जिनभाषित
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