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मूलाचार में, उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में इस प्रकार कहा | प्रश्न- श्वासोच्छ्वास के रोकने को ध्यान कहना है
चाहिये। णो वंदिज्ज अविरदं, मादा पिदुगुरु णरिंद अण्णतित्थं व। ___ उत्तर- नहीं, क्योंकि इसमें श्वासोच्छ्वास रोकने की देसविरदं देवं वा, विरदोपासत्थपणगं वा॥ ४९४॥ | वेदना से शरीरपात होने का प्रसंग है। इसलिये ध्यानावस्था
अर्थ- अविरत माता-पिता व गुरु की, राजा की, में श्वासोच्छ्वास का प्रचार स्वाभाविक होना चाहिए। अन्य तीर्थ की, देशविरत की, अथवा देवों की या पार्श्वस्थ | । २. श्री आदिपुराण पर्व २१ श्लोक नं. ६५-६६ में आदि पाँच प्रकार के मुनि की वह विरत मुनि वंदना न | इस प्रकार कहा हैकरे।
अतिशय तीव्र प्राणायाम होने से अर्थात् बहुत देर __ आचारवृत्ति : असंयत माता-पिता की, असंयत गुरु | तक श्वासोच्छ्वास के रोक रखने से इन्द्रियों को पूर्ण रूप की अर्थात् यदि दीक्षा गुरु यदि चारित्र में शिथिलभ्रष्ट है या | से वश में न करनेवाले पुरुष का मन व्याकुल हो जाता श्रत गुरु यदि असंयत है अथवा चारित्र में शिथिल है तो संयत है। जिसका मन व्याकल हो गया है उसके चित्त की मुनि उनकी वंदना न करे। वह राजा की, पाखंडी साधुओं| एकाग्रता नष्ट हो जाती है। और ऐसा होने से उसका ध्यान की शास्त्रादि से प्रौढ़ भी देशव्रती श्रावक की या नाग, यक्ष, | भी टूट जाता है। इसलिए शरीर से ममत्व छोड़ने वाले चन्द्र, सूर्य इन्द्रादि देवों की वंदना न करे। तथा पार्श्वस्थ | मुनि के ध्यान की सिद्धि के लिये मंद-मंद उच्छ्वास लेना आदि पाँच प्रकार के मुनि, जो कि निग्रंथ होते हुये भी | और पलकों के लगने उघडने आदि का निषेध नहीं है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र में शिथिल हैं, उनकी भी वंदना न करे।।
३. परमात्मप्रकाश २/१६२ की टीका में इस प्रकार विरत मुनि मोहादि से असंयत माता-पिता आदि की। कहा हैया अन्य किसी की स्तुति न करे। भय से या लोभ आदि ___ पातंजलिमत-वाले वायु धारणा रूप श्वासोच्छ्वास से राजा की स्तुति न करे। ग्रहों की पीड़ा आदि के भय | मानते हैं। वह ठीक नहीं है। क्योंकि वायुधारणा वांछापूर्वक से सूर्य आदि की पूजा न करे। शास्त्रादि ज्ञान के लोभ से | होती है। वांछा तो मोह से उत्पन्न विकल्प रूप है। वांछा - अन्य मतावलम्बी पाखण्डी साधुओं की, स्तुति न करे। | मोह का कारण है। वायुधारणा से मुक्ति नहीं होती, क्योंकि आहारादि के निमित्त श्रावक की स्तुति न करे एवं स्नेह वायुधारणा शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं। यदि आदि से पार्श्वस्थ आदि मुनियों की स्तुति न करे। तथैव वायुधारणा से मुक्ति होवे तो वायुधारणा करने वालों को अपने गुरुजी यदि हीन चारित्र हो गये हैं तो उनकी भी वंदना | इस पंचम काल में मोक्ष क्यों न होवे? अर्थात् वायुधारणा न करे। अन्य भी जो अपने उपकारी हैं, किन्तु असंयत
से मुक्ति नहीं होती। --- इससे देह आरोग्य होता है, सब हैं, उनकी भी वंदना न करे।
रोग मिट जाते हैं, शरीर हल्का हो जाता है, परंतु इससे प्रश्नकर्ता- डॉ० अरविन्द कुमार जैन, देहली
मुक्ति नहीं होती है। प्रश्न- क्या जैन शास्त्रों में प्राणायाम का वर्णन मिलता
____४. ज्ञानार्णव सर्ग २९ व ३० में इस प्रकार कहा हैहै? क्या प्राणायाम, धार्मिक दृष्टि से ध्यान में सहायक है | प्राणायाम में पवन के साधन से विक्षिप्त हआ मन या नहीं?
स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं होता। इस कारण भले प्रकार की उत्तर- जैन शास्त्रों में प्राणायाम का वर्णन मिलता | समाधि के लिये प्रत्याहार (इन्द्रियों तथा मन को विषयों है। प्राणायाम क्या है? श्वास को धीरे-धीरे अंदर खींचना | से हटाकर ध्येय वस्तु पर लगाना) करना श्रेष्ठ है। पवन कुंभक है, उसे रोके रखना पूरक है, और फिर धीरे-धीरे | का चातुर्य शरीर को सूक्ष्म-स्थूलादि करने रूप अंग का बाहर छोड़ना रेचक है। ये तीनों मिलकर प्राणायाम संज्ञा
साधन है, इस कारण मुक्ति की वांछा करने वाले मुनि के को प्राप्त होते हैं। जैनेतर लोग ध्यान व समाधि में इसको
लिये, प्राणायाम प्रायः विघ्न का कारण है। प्राणायाम में प्रमुख मानते हैं परंतु जैनाचार्य इसको इतनी महत्ता नहीं |
प्राणों को रोकने से पीड़ा होती है, पीड़ा से आर्तध्यान होता देते। क्योंकि चित्त की एकाग्रता हो जाने पर श्वासनिरोध |
है, और उस आर्तध्यान से तत्त्वज्ञानी मुनि अपने लक्ष्य से स्वतः होता है। इस संबंध में कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं- |
छूट जाता है। फिर भी मन की एकाग्रता के लिये प्राणायाम १. श्री राजवार्तिक अध्याय ९ सूत्र नं. २७ की टीका | कथंचित इष्ट भी है। में इस प्रकार कहा है
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा- 282002 (उ.प्र.) मार्च 2008 जिनभाषित 30
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