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आचार्य श्री विद्यासागर जी
के दोहे
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73 समरस अब तो चख जरा, सब रस सम बन जाय। नयनों पर उपनयन हो, हरा, हरा दिख जाय॥
74 सुधी पहिनता वस्त्र को, दोष छुपाने भ्रात! किन्तु पहिन यदि मद करे, लज्जा की है बात ।।
75 हित-मित-नियमित-मिष्ट ही, बोल वचन मुख खोल। वरना सब सम्पर्क तज, समता में जा 'खोल'।
76 भार उठा दायित्व का, लिखा भाल पर सार। उदार उर हो फिर भला. क्यों ना? हो उद्धार ॥
77 आगम का संगम हुआ, महापुण्य का योग। आगम हृदयंगम तभी, निश्छल हो उपयोग।
विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक। अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक॥
83 दिन का हो या रात का, सपना सपना होय। सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय॥
84 जो कुछ अपने आप है, नहीं किसी पर रूढ़। अनेकान्त से ज्ञात हो, जिसे न जाने मूढ़ ॥
85 अपने अपने धर्म को, छोड़े नहीं पदार्थ । रक्षक-भक्षक जनक सो, कोई नहीं यथार्थ ।।
86 खण्डन मण्डन में लगा, निज का ना ले स्वाद। फूल महकता नीम का, किन्तु कटुक हो स्वाद ॥
___87 नीर-नीर को छोड़ कर, क्षीर-क्षीर का पान। हँसा करता, भविक भी, गुण लेता गुणगान ॥
88 पक्षपात बिन रवि यथा, देता सदा प्रकाश। सबके प्रति मुनि एक हो, रिपु हो या हो दास॥
89 घने वनों में वास सो, विविध तपों को धार। उपसर्गों का सहन भी, समता बिन निस्सार ।।
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अर्थ नहीं परमार्थ की, ओर बढ़े भूपाल। पालक जनता के बनें, बनें नहीं भूचाल ॥
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79 दूषण ना भूषण बनो, बनो देश के भक्त। उम्र बढ़े बस देश की, देश रहे अविभक्त ॥
80 नहीं गुणों की ग्राहिका, रहीं इन्द्रियाँ और। तभी जितेन्द्रिय जिन बने, लखते गुण की ओर ॥
81 सब सारों में सार है, समयसार उर धार। सारा सारासार सो, विसार तू संसार॥
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चिन्तन मन्थन मनन जो, आगम के अनुसार। तथा निरन्तर मौन भी, समता बिन निस्सार॥
'सूर्योदयशतक' से साभार
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