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की भक्ति करता है। इस वास्ते जो श्रेणी मांडते हों वे उत्तम । प्रायश्चित्त यही है कि इस पाप का प्रायश्चित्त यही हैपुरुष हैं। उनको तो वस्तुविचार रहता है। उनकी तो आत्मा | किसका? कि सबका त्याग करो! तब इससे बढ़कर क्य की तरफ दृष्टि है। नहीं जाने घट की, न पट की। कोई | कर सकती थी। और जब नाहरी जैसी सुधर जाती है ते पदार्थ चिन्तवन में आ जाय तो वह विष का बीज रागद्वेष मनुष्य न सुधर जाय? मगर यह बात, हमारे मन में यह था वह उनका चला गया। हमारा विष का बीज रागद्वेष | कल्पना नहीं होनी चाहिए कि ये हमारे विरोधी हैं। वह बैठा है। इस वास्ते भगवान की भक्ति. उनके गणों का कषाय के उदय में बोलता है। बडे-बडे बोलते हैं क्य
देष की निवत्ति होती है। अतएव | बडी बात है। रामचन्द्र जी कषाय के उदय में छह महीने सम्यग्दृष्टि को भगवान की भक्ति करनी ही चाहिए। | मुर्दा को लिये फिरे, सीता का वियोग हुआ तो मुनि से __अपने विरोधी मानकर, जैनधर्म तो रागद्वेष रहित है | पूछते हैं कोई उपाय है, बताओं तो हमारा कल्याण कैसे कोई उनका अंतरंग से विरोधी नहीं है। भैया, कोई भी | होगा। तद्भव मोक्षगामी, देशभूषण कुलभूषण से सुन चुका मनुष्य जो है, कानजी स्वामी का विरोधी नहीं है। वह तो | और एक स्त्री के वियोग में इतना पागल हो गया। अरे यह चाहता है कि तुम जो इतना-इतना भूल पकड़े हो, इससे | तुम बता तो दो जरा, कहो हमारा भला कैसे होगा? तो तो तमाम संसार उल्टा डूब जायेगा। वह दो हजार के भले | उन्होंने वही उत्तर दिया जो देना था- सीता के वियोग का की बात कहते हों वह तो उल्टा डूबने का मार्ग है मिथ्यात्व | उत्तर नहीं दिया। यह उत्तर दिया कि जब तक लक्ष्मण का अंश ही बुरा होता है। अरे हमारी बात रह जाय, वह | से स्नेह, तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं होगा। और जिस
त काहे की। जब पर्याय ही चली जाय, जिस पर्याय | दिन लक्ष्मण से स्नेह छूटा, कल्याण हो गया। देख लो उसी में अहंबुद्धि है, तब बात काहे की है। तुम्हारा यह पर्याय | दिन हुआ। मेरी समझ में तो आप लोग विद्वान् हैं, सब सम्बन्धी सुन्दरता और आयु का अन्त। अरे सुन्दरता तो | हैं, कोई ऐसी चिट्ठी लिखो जिससे सब वह छूट जाय। अब ही चली जाय। द्रव्य से विचार करो, वह रख लेवें? | हम तो यही कहेंगे भैया और अन्त तक यही कहेंगे- चाहे अब ये जवान हैं, रख लेवें कि हम ऐसे ही बने रहें, नहीं | वे विरोधी बने रहें, चाहे वह छपा देवें कि हमारा मत इन्होंने रख सकते। अरे तुम जो बोलना चाहो उसको भी नहीं रख | स्वीकार कर लिया- जो उनकी इच्छा है- उसमें हम क्या सकते। क्यों? वह तो उदय में आकर खिर ही जायगा।| कर सकते हैं। उनके पण्डाल में नियम से तीन दिन, चार इस वास्ते बात तो यह हम अभी भी कहते हैं कि दिन गये उनका सुना, करा, सब कुछ किया, उन्होंने जो स्थितिकरण की आवश्यकता है
अभिप्राय लगाया हो और आप लोगों ने जो लगाया हो दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः।
अभिप्राय। मगर हम जो गये, हमारा भीतर का तात्पर्य यही प्रत्यवस्थपनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते॥
था कि- हे भगवान् ! ये मिल जाय, तो एक बड़ा भारी हमको तो शत्रुभाव उनमें रखना ही नहीं चाहिए। | उपकार जैनधर्म का होय। अरे शिखरजी से निर्मल क्षेत्र कषाय के उदय में मनुष्य क्या-क्या काम करता है- कौन और कौन है कि जहाँ पर नहीं होने की थी बात। हम नहीं जानता है। सब कोई जानते हैं। हम तो कहते हैं अब | क्या करें बताओं? बात ही नहीं होनी थी। हमारे वश की भी समझाने की आवश्यकता है, अब भी उपेक्षा करने की | बात तो नहीं थी। अच्छा और भिड़ाने वाले उनके अन्दर आवश्यकता नहीं है। ऐसा व्यवहार करो कि वह समझ | ऐसे होते ही हैं- हर कहीं ही ऐसे होते हैं जैसे मन्त्री तो जाय। बड़े से बड़े पाप समझो कि जो नाहरी-उसका पेट | शनि भये और राजा होय बृहस्पति। और मंत्री ही तो शनि विदारण कर दिया अपने बच्चे का, सुकोशल मुनिका। वह | बैठे, राजा वृहस्पति होने से क्या तत्त्व होय। वह तो अच्छी नाहरी जब विदारण कर दीया कि मुनि उनके पिता यशोधर | ही कहे मगर तोड़ने मरोड़ने वाले तो वहाँ बैठे हैं। बीच वहाँ आये। वह केवलज्ञान निर्वाण की पूजा करने वगैरह | में मंत्री बैठा है, सो बताईये कि कैसे बने। हम तो यह को। उससे कहते हैं कि जिस पुत्र के वियोग से यह दशा | कहें कि सम्यक्त्व के तो आठ अंग बताये, जिसमें भई आज उसी को विदार दिया? तो उसी समय उसके | दर्शनाच्चरणाद्वापि। दर्शन यानि श्रद्धा से च्युत हो जाय परिणामों ने पलटा खाया, वह सिर धुनने लगी। अरे सिर | कदाचित चारित्र से च्युत हो जाय। दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धुनने से क्या होता है। तो महाराज अब तो पाप का | धर्मवत्सलैः। फिर उसी में स्थापित करना उसी का नाम
नवम्बर 2007 जिनभाषित 13
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