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________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा पं.बसंत कुमार जी शिवाड़ में मोक्ष जायेंगे उनको निकट भव्य कहते हैं। जो अनन्त जिज्ञासा- क्या निधत्ति-निकाचितपना केवल अशुभ | काल में मोक्ष जायेंगे उनकों दूर भव्य और जो अनन्तानन्त प्रकृतियों में ही होता है या शुभ में भी? काल तक भी मोक्ष नहीं जायेंगे उनको अभव्यसमभव्य अथवा ___समाधान- इस जिज्ञासा के समाधान में गोम्मटसार | दूरातीदूर भव्य कहा जाता है। कर्मकांड की गाथा नं. 441 द्रष्टव्य है। __श्री षट्खंडागम 7/176-177 में इस प्रकार कहा है:संकमणाकरणूणा, णवकरणा होंति सव्वआऊणं। | दूरातीदूर भव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। उनको सेसाणं दसकरणा, अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा॥ | भव्य इसलिए कहा गया है क्योंकि उनमें शक्तिरूप से तो अर्थ-चारों आयु में, संक्रमण करण के बिना 9 करण | संसारविनाश की संभावना है किंतु उसकी व्यक्ति कभी नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि चारों आयु परस्पर में परिणमन नहीं होगी। करतीं। शेष बन्धयोग्य सर्व प्रकृतियों में दश करण होते हैं यह भी विशेष है कि समस्त दूरातीदूर भव्य या तथा मिथ्यात्व से अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त तो दशों करण | अभव्यसमभव्य नित्यनिगोद में ही हैं और अनन्तानन्त काल पाये जाते हैं। तक नित्यनिगोद में ही रहेंगे। जिसके कारण भव्य होते हुये उपरोक्त गाथा के अनुसार कर्मों की सभी प्रकृतियों | भी रत्नत्रय प्राप्ति के योग्य कोई निमित्त न मिलने से उनको में निधत्ति और निकाचितपना पाया जाता है। जनसामान्य में | कभी भी रत्नत्रय की प्राप्ति संभव नहीं है। ऐसी धारणा बनी हई है कि निधत्ति और निकाचितपना तीव्र | जिज्ञासा- असंक्षेपाद्धाकाल किसे कहते हैं ? कषाय के कारण होता है और वह अशुभ प्रकृतियों में ही समाधान- भोगभूमिया जीव एवं देव और नारकीयों होता है। परंतु उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार यह धारणा | के भुज्यमान आयु के 6 माह शेष रहने पर तथा अन्य सभी ठीक नहीं है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की प्रकृतियों में | जीवों के आयु का 1/3 भाग शेष रह जाने पर आयुबंध के निधत्ति और निकाचितपना पाया जाता है जो अनिवृत्तिकरण | योग्य 8 अपकर्षकाल आते हैं। जिन जीवों के इन 8 परिणामों द्वारा नाश हो जाता है। अपकर्षकालों में आयुबंध नहीं हो पाता है उनके भुज्यमान जिज्ञासा- क्या दूरान्दूर भव्य कभी रत्नत्रय का पालन | आयु के असंक्षेपाद्धाकाल शेष रह जाने पर परभविक आयु कर सकता है? बंध नियम से हो जाता है। असंक्षेपाद्धाकाल की परिभाषा समाधान- दूरान्दूर भव्यों को आगम में अभव्य-गोम्मटसार कर्मकांड गाथा 158 की टीका में इस प्रकार कही समभव्य नाम से कहा गया है। ये वे भव्य हैं जिनकी आत्मा में रत्नत्रय प्राप्त करने की शक्ति तो होती है परन्तु तद्योग्य । न विद्यते अस्मादन्यः संक्षेपः, स चासौ अद्धा च निमित्त न मिलने के कारण जिनको अनन्तानन्त काल में भी | असंखेपाद्धा, आवल्यसंख्येयभागमात्रत्वात्। रत्नत्रय की प्राप्ति संभव नहीं है। श्री राजवार्तिक 1/3/9 में अर्थ- जिससे संक्षिप्त आयुबंध काल और न हो ऐसे इस प्रकार कहा है आवली के असंख्यातवें भाग मात्र को असंक्षेपाद्धाकाल कहते केचिद् भव्याः संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति केचिदसंख्येयेन, हैं अर्थात् भुज्यमान आयु के अंत में जब मात्र आवली के केचिदन्तन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्तीति। असंख्यातवें भागमात्र आयु शेष रहती है तब उसे ___ अर्थ- कोई भव्य संख्यातकाल में, कोई असंख्यात | असंक्षेपाद्धाकाल कहते हैं। इतनी आयु शेष रहने पर प्रत्येक काल में, कोई अनन्त काल में मोक्ष नहीं जायेंगे। | जीव के परभव संबंधी आयु के बंध होने का नियम है। भावार्थ- जो भव्य संख्यातकाल व असंख्यातकाल | जिज्ञासा- मुझे कुत्ते एवं बिल्ली पालने का शौक है। 24 फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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