SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री विद्यासागरजी 83 85 77 73 82 पापत्याग के बाद भी, स्वल्प रहे संस्कार। भटकी अटकी कब नदी? लौटी कब अधबीच? झालर बजना बन्द हो, किन्तु रहे झंकार॥ रे मन! तू क्यों भटकता? अटका क्यों अघकीच? ॥ 74 राम रहे अविराम निज - में रमते अभिराम। भले कूर्मगति से चलो, चलो कि ध्रुव की ओर। राम-नाम लेता रहूँ, प्रणाम आठों याम॥ किन्तु कूर्म के धर्म को,पालो पल-पल और ॥ 75 84 चन्दन घिसता चाहता, मात्र गन्ध का दान। भक्त लीन जब ईश में, यूँ कहते ऋषि लोग। फल की वांछा कब करें, मुनिजन जगकल्याण॥ मणि-कांचन का योग ना, मणि-प्रवाल का योग । 76 धर्म-ध्यान ना, शुक्ल से, मोक्ष मिले आखीर। खुला खिला हो कमल वह, जब लौं जन-संपर्क। जितना गहरा कूप हो, उतना मीठा नीर॥ छूटा सूखा धर्म बिन, नर पशु में ना फर्क॥ 86 आकुल व्याकुल कुल रहा, मानव संकुल, कूल- मन्द-मन्द मुस्कान ले, मानस हंसा होय। मिला ना अब तक क्यों मिले, प्रतीति जब प्रतिकूल॥ अंश-अंश प्रति अंश में, मुनिवर हंसा मोय॥ 78 87 खून ज्ञान, नाखून से, खून-रहित नाखून। गोमाता के दुग्धसम, भारत का साहित्य। चेतन का संधान तन, तन चेतन से न्यून॥ शेष देश के क्या कहें, कहने में लालित्य॥ 79 88 आत्मबोध घर में तनक, रागादिक से पूर। उन्नत बनने नत बनो, लघु से राघव होय। कम प्रकाश अति धूम्र ले, जलता अरे कपूर ॥ कर्ण बिना भी धर्म से, विजयी पाण्डव होय ॥ 80 89 लँगड़ा भी सुरगिरि चढ़े, चील उड़ें इक पांख। पुनः भस्म पारा बने, मिले खटाई योग। जले दीप, बिन तेल, ना-घर में अक्षय आँख॥ बनो सिद्ध पर मोह तज, करो शुद्ध उपयोग। 81 90 लगाम अंकुश बिन नहीं, हय, गय देते साथ। माध्यस्था हो नासिका, प्रमाणिका नय आँख। व्रत-श्रुत बिन मन कब चले, विनम्र कर के माथ॥ पूरक आपस में रहे, कलह मिटे अघ-पाक॥ 'सर्वोदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524314
Book TitleJinabhashita 2007 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy