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________________ वेदबाह्य धर्म स्वयं हिन्दूपुराणों में जैनों और बौद्धों को वेदबाह्य कहा गया है। मत्स्यपुराण (300 ई.) में जैनधर्म को वेदबाह्य एवं उसे स्वीकार कर वेदबाह्य हो जानेवालों को नष्ट किये जाने योग्य अवस्था को प्राप्त हो जानेवाला बतलाया गया हैगत्वाथ मोहयामास रजिपुत्रान्वृहस्पतिः । जिनधर्मं समास्थाय वेदबाह्यं स वेदवित् ॥ 24/47 ॥ वेदत्रयीपरिभ्रष्टांश्चकार धिषणाधिपः । वेदबाह्यान् परिज्ञाय हेतुवादसमन्वितान् ॥ 24/48 ॥ जघान शक्रो वज्रेण सर्वान् धर्मबहिष्कृतान् || 24/49 || अनुवाद - (राजा रजि के पुत्रों ने इन्द्र का साम्राज्य छीन लिया, तब उसने वृहस्पति के पास जाकर प्रार्थना की, कि मेरा राज्य वापिस दिलाने के लिए कुछ उपाय कीजिए। वृहस्पति ने ग्रहशान्तिविधान तथा पौष्टिक कर्म करके इन्द्र को बलवान् एवं साहसी बना दिया (24 / 43-46 ) और) रजिपुत्रों के पास जाकर उन्हें मोहित कर वेदबाह्य जैनधर्म का अनुयायी बना दिया, जिससे वे वेत्रमयी से च्युत होकर शक्तिहीन हो गये। तब इन्द्र ने उन समस्त वैदिकधर्म से बहिष्कृतों को वज्रप्रहार से मार डाला। इस प्रकार स्वयं हिन्दूपुराणों में जैनधर्म को वेदबाह्य कहे जाने से सिद्ध है कि हिन्दूधर्म में भी उसे हिन्दूधर्म का अंग नहीं माना गया है। हिन्दू - पद्मपुराण में वैदिकधर्म के लक्षणों के अभाव को ही जैनधर्म का लक्षण बतलाया गया है। उसमें एक दिगम्बर जैनमुनि का रूप धारण करके आनेवाले पुरुष को राजा वेन के पूछने पर जैनधर्म के लक्षण बतलाते हुए वर्णित किया गया है। वह जैनधर्म के लक्षण इस प्रकार बतलाता है अर्हतो देवता यत्र निर्ग्रन्थो दृश्यते गुरुः । दया चैव परो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते ॥ दर्शनेऽस्मिन्न सन्देह आचारान्प्रवदाम्यहम् । यजनं याजनं नास्ति वेदाध्ययनमेव च ॥ नास्ति सन्ध्या तपो दानं स्वधास्वाहाविवर्जितम् । हव्यकव्यादिकं नास्ति नैव यज्ञादिका क्रिया ॥ पितॄणां तर्पणं नास्ति नातिथिर्वैश्वदेवकम् । क्षपणस्य वरा पूजा अर्हतो ध्यानमुत्तमम् ॥ अयं धर्मसमाचारो जैनमार्गे प्रदृश्यते । एतत्ते सर्वमाख्यातं निजधर्मस्य लक्षणम् ॥ (पद्मपुराण/भूमिखण्ड /छद्मलिंगधारी से संवाद / श्लोक 17-21/पृ. 473) अनुवाद - हम अर्हन्त को देवता और निर्ग्रन्थ मुनि को गुरु मानते हैं, अहिंसा हमारा परमधर्म है और मोक्ष की प्राप्ति परम लक्ष्य । हमारे धर्म में यजनयाजन नहीं होता, न ही वेदों का अध्ययन। न हम सन्ध्या करते हैं, न (ब्राह्मणोंजैसा) तप और दान । हम देवताओं को स्वाहापूर्वक हवि प्रदान भी नहीं करते और स्वध्यापूर्वक पितरों का तर्पण नहीं करते। वैश्वदेव हमारे अतिथि नहीं होते। हमारे धर्म में क्षपणक (दिगम्बर जैनमुनि) की पूजा और अरहन्त का ध्यान ही श्रेष्ठ माना जाता है। ये ही हमारे धर्म के लक्षण हैं । इन लक्षणों से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू पुराणों में जैनधर्म को हिन्दूधर्म के लक्षणों से रहित होने के कारण एक वेदबाह्य धर्म अर्थात् हिन्दूधर्म से बाहर का धर्म माना गया । अतः गुजरात की नरेन्द्रमोदी सरकार द्वारा जैनधर्म को हिन्दूधर्म का अंग मानना हिन्दूशास्त्रों के ही खिलाफ है। जैनधर्म प्राग्वैदिक धर्म राजा रजि के पुत्रों की उपर्युक्त पौराणिक कथा से एक महत्त्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश पड़ता । वह यह कि जैनधर्म प्राग्वैदिक धर्म है। राजा रजि, राजा पुरूरवा और अप्सरा उर्वशी से उत्पन्न 'आयु' के पुत्र थे । (मत्स्यपुराण 24/21-35)। पुरूरवा और उर्वशी की प्रेमकथा का वर्णन ऋग्वेद (10/85) और शतपथ ब्राह्मण (15/5/1 ) में मिलता है। (बलदेव उपाध्याय : वैदिक साहित्य और इतिहास / शारदा संस्थान, वाराणसी/पृ. 121-122)। वृहस्पति ने ऋग्वेदोल्लिखित राजा पुरूरवा के पौत्रों को जैनधर्म में दीक्षित किया था, इससे सिद्ध है कि जैनधर्म का अस्तित्व ऋग्वेदकाल के पहले से चला आ रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524310
Book TitleJinabhashita 2006 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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