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________________ जैन प्रतीक चिह्न मनोज जैन पंचरत्न प्रतीक चिह्न : एक व्याख्या उपयोग निर्देश ___वर्ष 1975 में 1008 भगवान महावीर स्वामी जी के प्रतीक चिह्न किसी भी विचारधारा, दर्शन या दल के 2500 वें निर्वाण वर्ष के अवसर पर समस्त जैन समुदायों ने | ध्वज के समान है, जिसको देखने मात्र से पता लग जाता है जैनधर्म के प्रतीक चिन्ह का एक प्रारूप बना कर उस पर | कि यह किससे सम्बन्धित है, परन्तु इसके लिये किसी भी सहमति प्रगट की थी। आजकल लगभग सभी जैन पत्र- प्रतीक चिह्न का विशिष्ट (यूनिक) होना एवं सभी स्थानों पर पत्रिकाओं, वैवाहिक कार्ड,क्षमावाणी कार्ड, भगवान् महावीर | समानुपाती होना बहुत ही आवश्यक है। यह भी आवश्यक स्वामी निर्वाण दिवस, दीपावली एवं जैन समाज से जुड़े | है कि प्रतीक का प्रारूप बनाते समय जो मूल भावनायें इसमें किसी भी कार्यक्रम की पत्रिकाओं में इस प्रतीक चिह्न का | समाहित की गयी हैं, उन सभी मूल भावनाओं को यह प्रयोग किया जाता है। हमारे कार्यक्रमों के आमंत्रणपत्र, इत्यादि | प्रकाशित चिह्न अच्छी तरह से प्रगट करता हो। शायद आपने में प्रतीकचिह्नों का प्रयोग हमारी अपनी परम्परा में श्रद्धा एवं | कभी ध्यान से देखा हो, इन सभी पत्र-पत्रिकाओं में इस विश्वास का द्योतक है। प्रतीक चिह्न का कुछ अलग-अलग ही रूप दर्शाया जाता है। जैन प्रतीक चिह्न : मूल भावनाएँ एक ही चिह्न का अलग-अलग रूप भ्रम की स्थिति उत्पन्न जैन प्रतीक चिह्न कई मूल भावनाओं को अपने में | करता है एवं इसमें समाहित मूल भावनाओं को भली प्रकार समाहित करता है। इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में | प्रदर्शित नहीं कर पाता है। प्रस्तुत आलेख में, इन सभी वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग | बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित किया गया है। अधोलोक, बीच का भाग मध्यलोक एवं ऊपर का भाग फोंट ग्राफिक उपलब्धता उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपरी भाग में चन्द्राकार विभिन्न साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाओं में इसका अलगसिद्धशिला है। अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान् इस सिद्ध | अलग रूप छपने का मुख्य कारण इसको एकरूप छापने के शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिये | लिये आवश्यक फोंट एवं ग्राफिक्स का अभाव है, प्रिन्टर विराजमान हैं. चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय | एवं कम्पोजर अपने पास उपलब्ध संसाधन के अनुसार का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का | इसका डिजाइन बना देते हैं। इस प्रतीकचिह्न को एक रूप में भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में 24 आरों वाला | छापने के लिये अब इसके फोंट का विकास कर लिया गया चक्र चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शित करता है। फोंट के उपयोग से इसको इसका सही स्वरूप में छापा है, जिसका मूल भाव अहिंसा है। ऊपरी भाग में प्रदर्शित | जा सकेगा। जरूरत है, इसका उपयोग करते समय हम स्वस्तिक की चार भुजायें चार गतियों -- नरक, तिर्यञ्च, | सुनिश्चित करें कि प्रिंटर एवं कम्पोजर सही फोंट का उपयोग मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी | करें। इस फोंट की उपलब्धता के लिये इसकी सीडी प्रिंटर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है। स्वस्तिक के | तथा कम्पोजर को भेजी जा रही है एवं इसे इन्टरनेट वेबसाइट ऊपर प्रदर्शित तीन बिंदु सम्यक् रत्नत्रय-सम्यकदर्शन, | से निःशुल्क डाउन लोड भी किया जा सकता है। सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं | सही स्वरूप कि सम्यक् रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर प्रस्तुत ग्राफिक्स के माध्यम से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं सकता है। सम्यक्ररत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार में छपे इसके विविध रूप उनकी त्रुटियाँ एवं सही स्वरूप मोक्षप्राप्ति के लिये परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे | को दर्शाया गया है। (देखिए आवरण पृष्ठ 3)। गये सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का अर्थ है जीव एक बी-20, गली नं. 11 दसरे का उपकार करते हैं। संक्षेप में जैन प्रतीक चिह्न संसारी लक्ष्मी नगर, दिल्ली- 110092 प्राणी की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला फोन - 011 - 22017981 तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है। Email : ManojPanchratan@yahoo.com 32 अक्टूबर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524310
Book TitleJinabhashita 2006 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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