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जैनेतर दर्शनों में अनेकान्त और स्याद्वाद
प्रो. रतनचन्द्र जैन सम्पादक : जिनभाषित
हिन्दी के सुविख्यात कवि एवं इतिहासकार स्व. श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है कि अहिंसा' और 'अनेकान्तवाद' की विचारधारा एवं प्रवृत्ति प्राग्वैदिक है, जो वेदपूर्व जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से जुड़ी हुई है। (देखिए, इसी अंक में 'जैन संस्कृति वेदपूर्व है' इस शीर्षक से प्रस्तुत उनके विचार)।
यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विभिन्न धर्मावलम्बी जब एक स्थान में साथ-साथ रहते हैं, तब उनके धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक और सामाजिक आचार-विचारों का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ता है और उनमें अपने धर्मानुकूल अनेक तत्त्वों का आदान-प्रदान होता है। इसी कारण जैनधर्म की अहिंसा के साथ जैनदर्शन के अनेकान्त और स्याद्वाद का भी प्रभाव भारत के जैनेतर दर्शनों पर पड़ा है। इसके कुछ प्रमाण इस लेख में प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
अनेकान्त जैनदर्शन का एक आधारभूत एवं विशिष्ट । इन उक्तियों में ब्रह्म में सत् और असत् उभय धर्मों सिद्धान्त है। जैन विचारधारा में प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक | का विधान भी किया गया है और निषेध भी। इसका उद्देश्य मानी गयी है। एक ही वस्तु में अपेक्षाभेद से सत्व-असत्त्व, ‘सदसत्' कहकर कहीं तो ब्रह्म के व्यक्ताव्यक्त स्वरूप नित्यत्व-अनित्यत्व, भेदत्व-अभेदत्व, एकत्व-अनेकत्व का बोध कराना है, कहीं अव्यक्त स्वरूप में सगुण-निर्गुण आदि वस्तुस्वरूपनिष्पादक परस्परविरुद्ध धर्मयुगलों का होना स्वरूप का निर्देश करना है और कहीं सदसत् से विलक्षण अनेकान्त कहलाता है।
निरूपित कर केवल निर्गुण स्वरूप का ज्ञान कराना है। इसी ___अनेकान्त एकान्त का विरुद्धार्थी है। एकान्त का अर्थ के आधार पर उपनिषदों तथा भगवद्गीता में अनेक स्थानों के है 'सर्वथात्व' अर्थात् वस्तु में किसी एक ही धर्म का होना। पर ब्रह्म को सद्प, असद्प, सदसद्रूप तथा सदसद्अनेकान्त उसका निषेधक है जैसा कि जैनाचार्य भट्ट | विलक्षण बतलाया गया है। अकलंकदेव के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है - "सदसन्नि- | ऋग्वेद (1/164/46) का ही कथन है - "एकं सद्विप्रा त्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः।" (देवागम/ | बहुधा वदन्ति' = सत् एक ही है, विद्वान् उसका अनेक रूपों अष्टशती/कारिका 103)
में वर्णन करते हैं। यह कथन 'सत्' को एक और अनेक अर्थात् वस्तु सत् ही है या असत् ही है, नित्य ही है | उभयरूप सिद्ध करता है। या अनित्य ही है, इस प्रकार के सर्वथा एकान्त का निषेध | उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप अनेकान्तरूप में वर्णित करना अनेकान्त का लक्षण है। अतः वस्तु में किसी एक ही | हुआ है। उदाहरणार्थ - धर्म का न होना, उसके प्रतिपक्षी धर्म का भी होना, अनेकान्त | 1 "अणोरणीयान्महतो महीयान्।" (कठोपनिषद् 1/2/20)। कहलाता है।
= "वह ब्रह्म सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् से महान् है।" जैनदर्शन के प्रभाव से यह अनेकान्त जैनेतर दर्शनों में भी स्वीकृत किया गया है। वैदिक साहित्य के सबसे प्राचीन | 2. "तदेजति तन्नजति तद् दूरे तदन्तिके।" (ईशोपनिषद/ ग्रन्थ ऋग्वेद में सृष्टि के मूल कारण ब्रह्म को सत्-असत् से
। 5)। = "वह चलता है, नहीं भी चलता है। वह दूर भी
है, पास भी है।" भिन्न बतलाया गया है - "नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्" (ऋग्वेद 10/129/1 )। किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण (2/1/9/1) | 3. “क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तम्।" (श्वेताश्वतरोपनिषद् में उसका सत-असत् उभयरूप में निरूपण है - "नामरूप- 1/8)। = "वह क्षर भी है, अक्षर भी। व्यक्त भी है, रहितत्त्वेनासच्छब्दवाच्यं सदेवावस्थितं परमात्मतत्त्वम्"। अव्यक्त भी।" ऋग्वेद में ही अन्यत्र कहा गया है कि देवताओं के प्रथम युग इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उपनिषदों के प्रणेता में असत् (अव्यक्त ब्रह्म) से सत् (व्यक्त संसार) की उत्पत्ति | ऋषि भी आत्मा को परस्परविरुद्ध धर्मयुग्मों से समन्वित हुई। "देवानां युगे प्रथमेऽसतः सदजायत" (10/72/3)। । मानते थे।
14 अक्टूबर 2006 जिनभाषित
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