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________________ श्रद्धा होती है कि अपना भला या बुरा स्वयं के कर्मोदय के अनुसार होता है। किसी भगवान् या देवता की कृपा अथवा रुष्टता से किसी का अच्छा या बुरा नहीं हो सकता है। इसके अतिरिक्त मुख्य बात यह है कि तत्त्वज्ञानी सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जिनेन्द्र पूजा आदि पुण्य कार्यों को निदान (लौकिक फलाकांक्षा) रहित होकर करता है। आचार्य कुंदकुंद के समयसार कर्तृकर्म अधिकार की गाथा ७९ की टीका में आचार्य जयसेन स्वामी ने बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव के बारे में लिखा है- "अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिर्जीवो विषयकषायरूपाशुभोपयोगपरिणामं करोति। कदाचित्पुनश्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मानं त्यक्त्वा भोगाकांक्षानिदानस्वरूपं शुभोपयोगपरिणामंच करोति।" अर्थात् जब तक अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि की अवस्था में रहता है तब तक प्रधानता से विषयकषाय-अशुभपरिणाम करता रहता है। किंतु कभीकभी चिदानंद स्वरूप शुद्धात्मा को प्राप्त किए बिना उससे शून्य केवल भोगाकांक्षा के निदानबंधस्वरूप शुभपरिणाम भी करता है। ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीवों के परिणाम कभी-कभी भगवान् जिनेन्द्र की पूजा-आराधना एवं वीतरागी गुरुओं की उपासना करने की ओर लगते हैं, किन्तु उनका उद्देश्य भोगाकांक्षानिदानबंध-रूप ही होता है । तथापि सम्यग्दर्शन के होने पर उन जिनपूजा और गुरु-उपासना का महान् उदात्त उद्देश्य वीतरागता की प्राप्ति मात्र होता है। आगे उसी गाथा की टीका में जयसेन स्वामी लिखते हैं - "कदाचित्पुनः निर्विकल्पसमाधिपरिणामाभावे सति विषयकषायवंचनार्थं शुद्धात्मभावनासाधनार्थं वा बहिर्बुद्ध्या ख्यातिपूजालाभभोगाकांक्षानिदानबंधरहितः सन् शुद्धात्मलक्षणार्हत्सिद्धशुद्धात्माराधकप्रतिपादकसाधकाचार्योपाध्यायसाधूनां गुणस्मरणादिरूपं शुभोपयोगपरिणामं च करोति। अस्मिन्नर्थे दृष्टांतमाहुः। यथा कश्चिद्देवदत्तः स्वकीयदेशान्तरस्थितस्त्रीनिमित्तं तत्समीपागतपुरुषाणां सन्मानं करोति, वार्ता पृच्छति, तत्स्त्रीनिमित्तं तेषां स्वीकारं स्नेहदानादिकं च करोति। तथा सम्यग्दृष्टिरपि शुद्धात्मस्वरूपोपलब्धिनिमित्तं शुद्धात्माराधकप्रतिपादकाचार्योपाध्यायसाधूनां गुणस्मरणं दानादिकं च स्वयं शुद्धात्माराधनारहित सन् करोति।'' अर्थ - पुनः कदाचित् निर्विकल्प समाधि के परिणाम नहीं होने पर विषयकषायों को रोकने के लिए अथवा शुद्धात्मभावना की सिद्धि के लिए वह बाह्यदृष्टि होते हुये भी ख्याति-पूजा-लाभ-भोगाकांक्षा-निदानबंध-रहित होकर शुद्धात्मा है लक्षण जिनका ऐसे अर्हत्-सिद्ध शुद्धात्मा की आराधना करनेवाले और उसी का प्रतिपादन करने वाले एवं उसी शुद्धात्मा के साधक ऐसे आचार्य उपाध्याय-साधुओं के गुणस्मरणादिरूप शुभोपयोगपरिणाम को भी करता है। इस विषय का दृष्टान्त दे रहे हैं। जैसे कोई पुरुष जिसकी स्त्री देशातंर में है, उस स्त्री का समाचार जानने के लिए उसके पास से आये हुये लोगों का सम्मान करता है, उसकी बात पूछता है, उसको प्रेम दिखलाकर दानादिक भी देता है। यह सारा बर्ताव उसका केवल स्त्री का परिचय प्राप्त करने के निमित्त होता है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिज्ञानी भी जिस काल में स्वयं शुद्धात्मा की आराधना से रहित होता है, उस समय शुद्धात्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए शुद्धात्माराधक एवं प्रतिपादक आचार्य-उपाध्याय-साधुओं की गुणस्मरणरूप पूजा निदानादिरहित होता हुआ करता है। आचार्य जयसेन स्वामी ने सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की शुभोपयोगरूप क्रियाओं में होनेवाले परिणामों के अंतर को स्पष्ट किया है। सम्यग्दृष्टि निर्विकल्पसमाधि के परिणाम नहीं हो सकने पर ख्याति-पूजा-लाभ-भोगाकांक्षानिदानबंधरहित होकर विषयकषायों को रोकने के लिए पंचपरमेष्ठी के गणस्मरण-आराधनारूप शभोपयोगपरिणाम करता है। जबकि मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा भी कभी जिनेन्द्र की एवं गुरुओं की पूजा आदि के परिणाम करता भी है, तो उनका उद्देश्य भोगाकांक्षा-निदान-बंधरूप ही रहता है। - समयसार ग्रंथ की टीका द्वारा स्थापित उपर्युक्त सिद्धांत के अनुसार हमारे दिगम्बर आचार्य एवं मुनि महाराजों को भगवान् जिनेन्द्र की पूजा किसी भी प्रकार के लौकिक लाभ तथा निदान के उद्देश्य को लेकर नहीं करने का श्रावकों को उपदेश देना चाहिए। किंतु अत्यंत खेद है कि आचार्य स्वयं पूजकों के मन में विभिन्न लौकिक सिद्धि प्राप्त करने एवं संकट दूर होने का लोभ उत्पन्न कर, उन्हें उक्त उद्देश्य से पूजा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। यह स्वाभाविक है कि गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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