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________________ प्रश्नकर्ता : पं. विनीत शास्त्री, भोपाल । | देवों में, द्वितीय भाग में मरण करने पर देव या मनुष्यों में, जिज्ञासा : क्या क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तृतीय भाग में मरण करने पर देव-मनुष्य या तिर्यंचों में और चतुर्थ भाग में मरण करने पर चारों में से किसी भी गति में नरक में जाये तो सम्यक्त्व छूटता ही है? उत्पन्न होता है। अत: वेदक सम्यग्दृष्टि के तिर्यंचगति और समाधान : सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ३९० पर आचार्य नरकगति में उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है। और इस प्रभाचन्द के टिप्पणों में इस प्रकार कहा गया है, शंका : तरह तिर्यंच अपर्याप्तकों के भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जानना वेदक सम्यक्त्व सहित जीव तिर्यंचों में अथवा नरकों में चाहिए। उत्पन्न नहीं होता। तब कैसे उनके अपर्याप्त अवस्था में उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट है कि यदि सामान्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व संभव है? समाधान : ऐसा कहना क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच मरण करके नरक उचित नहीं है क्योंकि सात प्रकृतियों के क्षपणा के प्रारम्भक | जाता है तो उसका सम्यक्त्व नियम से छटता ही है। परन्त वेदक सम्यक्त्व युक्त जीव कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होकर यदि वह जीव कृतकृत्य वेदक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि है, जब क्षायिक सम्यक्त्व के अभिमुख होता है,तब यदि वह तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सहित ही नरक में जाता है। मरण करता है, तो कृतकृत्य वेदक काल के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण चार भागों में से यदि प्रथम भाग में मरण करता है तो 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा- 282 002 भगवान् सुमतिनाथ जी जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र अयोध्या नगरी में मेघरथ नाम के राजा राज्य करते थे। मंगला नाम की उनकी पटरानी थी। चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन उस महारानी ने वैजयन्त विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। अभिनन्दन स्वामी के बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर भगवान् सुमतिनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु चालीस लाख पूर्व और शरीर की उँचाई तीन सौ धनुष थी। तपाये हुये सुवर्ण के समान उनकी कान्ति थी। जब उनके कुमार काल के दस लाख पूर्व बीत चुके तब उन्हें राज्य पद प्राप्त हुआ। इस प्रकार सुख पूर्वक समय व्यतीत करते हुए उनके उनतीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग वर्ष सुख से बीत चुके थे। एक समय अपनी जन्मतिथि पर प्रभु सुसज्जित अयोध्यापुरी की शोभा देख रहे थे। उसी समय अपने अहमिन्द्र होने का जातिस्मरण होने से उन्हें वैराग्य हो गया। जिससे उन्होंने वैशाख सुदी नवमी के दिन प्रात:काल के समय सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ बेला का नियम लेकर दीक्षा धारण कर ली। पारणाा के दिन वे भगवान् आहार के लिए सौमनस नामक नगर में गये। वहाँ राजा पद्म ने उन्हें आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस तरह छद्मस्थ अवस्था के बीस वर्ष बीत जाने पर वे भगवान् सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए जिससे चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन अपराह्न काल में घातिया कर्म के नाश से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उनके समवशरण की रचना हुई जिसमें तीन लाख बीस हजार मुनि, तीन लाख तीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। आर्यक्षेत्रों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए जब उनकी आयु एक मास की शेष रह गई तब उन्होंने सम्मेदशिखर पर एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण पद प्राप्त किया । 'शलाका पुरुष' (मुनि श्री समतासागर जी) से साभार 28 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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