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________________ कुछ प्रेरक प्रसंग डॉ. श्रीमती वन्दना जैन महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत तुकाराम के घर एक दिन | तभी हिसाब मिल गया। सन्त एकनाथ की खुशी का पारावार खाने को कुछ नहीं था। वे अपने खेत से गन्ने का भार नहीं था । खुशी में वे ताली बजाकर आनंदित होने लगे। तब उठाकर ला रहे थे। रास्ते में लौटते- बांटते केवल एक गन्ना गुरुदेव बोले- एक पाई की भूल मिलने पर जब तुम इतने लेकर घर पहुंचे। इससे उनकी पत्नी क्रोधित हो गई । तुकाराम प्रसन्न हो रहे हो तो इस संसार में मनुष्य न जाने कितनी भूलें के घर आते ही उसने गन्ना हाथ में ले लिया और उनकी करता रहता है, अगर वह भी इन भूलों को ठीक कर ले, तो पीठ पर जोर-जोर से मारना शुरू कर दिया। गन्ने के फौरन उनके जीवन में न जाने कितना हर्ष होगा। संत एकनाथ ने दो टुकड़े हो गये। तुकाराम ने शांति से कहा, अपन दोनों को गुरु के ये शब्द सुने, उन्हें मानो आत्मज्ञान की कुंजी मिल खाने के लिए दो भाग मुझे करना पड़ते, तुमने मेरा काम गई । हल्का कर दिया। क्षमा से क्रोध को जीतने के इस सुंदर प्रयोग से पत्नी का मन बिल्कुल शीतल हो गया। संत तुकाराम की तरह जिनके पास क्षमा का पानी होता है, वे उस आग को बुझाने में सफल होते हैं । | क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फांसी लगनी थी, उस दिन भी वे रोज की भांति सबेरे उठकर व्यायाम कर रहे थे। जेल अधीक्षक ने पूछा, 'आज तो आपको एक घंटे बाद फांसी लगने वाली है, फिर व्यायाम करने से लाभ?' बिस्मिल ने जेल अधीक्षक को उत्तर दिया, 'जीवन आदर्शों और नियमों में बंधा हुआ है, जब तक शरीर में सांस चलती है, तब तक व्यवस्था में अंतर आने देना उचित नहीं है। नियम पालन एक ऐसा गुण है, जिसका त्याग प्राण जाने जैसी स्थिति आने पर भी नहीं करना चाहिए। थोड़ी सी अड़चन सामने आ जाने पर जो लोग अपनी दिनचर्या और कार्यव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देते हैं, वे कभी अपने मिशन में सफल नहीं होते।' बिस्मिल की बात सुनकर जेल अधिकारी आश्चर्य में पड़ गया । संत एकनाथ के गुरु श्री जनार्दन स्वामी ने हिसाबकिताब का काम एकनाथ को सौंप रखा था। गुरु सेवा जानकर एकनाथ निष्ठापूर्वक काम में लगे रहते थे, ऐसे ही एक दिन वे हिसाब-किताब मिला रहे थे, पर बार-बार कोशिश करने पर भी एक पाई का हिसाब नहीं मिला । अर्द्धरात्रि में जनार्दन स्वामी की नींद खुली, तो पाया कि एकनाथ अपने बिस्तर पर नहीं हैं। दूसरे कमरे में दीये की रोशनी में हिसाब करने में लीन हैं। संयोग से एकनाथ को 24 नवम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International एक ऋषि के पास एक युवक ज्ञान प्राप्ति के लिए पहुंचा। ज्ञान प्राप्ति के बाद शिष्य ने गुरु दक्षिणा देनी चाही। गुरु दक्षिणा के रूप वह चीज मांगी जो बिल्कुल व्यर्थ हो । शिष्य व्यर्थ चीज की खोज में निकल पड़ा। उसने मिट्टी की ओर हाथ बढ़ाया तो मिट्टी बोल पड़ी, तुम मुझे व्यर्थ समझ रहे हो ? क्या तुम्हें पता नहीं है कि इस दुनिया का सारा वैभव ही गर्भ से प्रकट होता है। ये विविध वनस्पतियाँ ये रूप-रस और गंध सब कहाँ से आते हैं। शिष्य आगे बढ़ गया। थोड़ी दूर पर उसे एक पत्थर मिला शिष्य ने सोचा, इसे ही ले चलूँ । लेकिन जैसे ही उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो पत्थर से आवाज आई, तुम इतने ज्ञानी होकर भी मुझे बेकार मान रहे हो। तुम अपने भवन और अट्टालिकाएँ किससे बनाते हो? तुम्हारे मंदिरों में किसे गढ़कर देव प्रतिमाएँ स्थापित की जाती हैं। मेरे इतने उपयोग के बाद भी तुम मुझे व्यर्थ मान रहे हो? यह सुनकर शिष्य ने फिर अपना हाथ खींच लिया। वह सोचने लगा, जब मिट्टी और पत्थर इतने उपयोगी हैं। तो आखिर व्यर्थ क्या हो सकता है ? उसके मन से आवाज आई कि सृष्टि का हर पदार्थ अपने आपमें उपयोगी है। वस्तुत: व्यर्थ और तुच्छ वह है, जो दूसरों को व्यर्थ और तुच्छ समझता है। व्यक्ति के भीतर का अहंकार ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसका कहीं उपयोग नहीं । वह गुरु के पास लौट गया और उनके पैरों में गिर पड़ा वह दक्षिणा में अपना अहंकार देने आया था। ए-5 प्रोफेसर कॉलोनी, आगर मालवा पिन 465441 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524302
Book TitleJinabhashita 2005 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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