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संपूर्ण भारत के निष्पक्ष समाज-शिरोमणियों और विद्वानों का प्रतिनिधित्व हो। किन्तु उसमें ऐसे व्यक्तियों को शामिल न किया जाय, जिनकी छवि लीपापोती करने की बन गयी है या जो उक्त गुरु को 'येन केन प्रकारेण' अपराधी सिद्ध करना चाहते हों। तथा यह धारणा बनाकर जांच शुरु न की जाय कि पूरी तरह गुरु ही दुष्कर्म के दोषी हैं और स्वयं उन आर्यिकाओं एवं ब्रह्मचारिणियों का इसमें कोई दोष नहीं है, जिन्होंने अपने साथ गुरु के द्वारा व्यभिचार किये जाने का आरोप लगाया है या यह कहा है कि उनके सामने व्यभिचार हुआ है। क्योंकि यदि दुष्कर्म हुआ है, तो किन्हीं नाबालिग, अबोध बालिकाओं के साथ नहीं हुआ है, अपितु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र और उपचार-महाव्रतों के पालन की दीक्षा लेनेवाली, तत्त्वार्थसूत्र और मूलाचार का स्वाध्याय करनेवाली तथा श्रावकों को मोक्षमार्ग का उपदेश देनेवाली आर्यिका जैसे गुरुणी के पवित्र पद पर आसीन वयस्क और समझदार साध्वियों के साथ हुआ है। अत: अपने शीलभंग में इनका उतना ही हाथ है, जितना इनके गुरु का, क्योंकि इनके शीलभंग का अवसर इसलिए आया कि इन्होंने आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों के लिए निर्धारित आचारसंहिता का पालन नहीं किया, जिसका पालन इन्हें प्राणों की कीमत पर भी करना चाहिए था। उदाहरणार्थ___1. आर्यिका विद्याश्री और विधाश्री ने अपने शपथपत्रों में लिखा है कि 'यह विरागसागर हमारे धर्म में स्थापित मानदण्डों का आचरण नहीं करते हैं।' किन्तु उन पर आरोप लगानेवाली आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों ने स्वयं धर्म में स्थापित मानदंडों के अनुसार आचरण नहीं किया। मूलाचार में नियम है कि किसी भी आर्यिका या ब्रह्मचारिणी को एकांत में बैठे हए गुरु के पास अकेले नहीं जाना चाहिए। (मलाचार गाथा 177, 192) । किन्तु उक्त आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों ने इस धर्म का पालन नहीं किया। वे अकेले जाती रहीं और एकान्त में घंटों बैठती रहीं। कोई भी आगमनिष्ठ गुरु एकांत में किसी आर्यिका या किसी स्त्री को नहीं बुला सकता। जो बुलाता है, उसका अभिप्राय दूषित है, यह तुरंत समझ लेना चाहिए। अत: उसकी आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिए, यह शास्त्राज्ञा है।
2. 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है कि सत्यव्रत के पालन के लिए भय का त्याग आवश्यक है: 'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानानुवीचिभाषणं च पञ्च।' सप्तभयों का त्याग सम्यग्दृष्टि की पहचान है। मेरी भावना में पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने कहा है
कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों बरसों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे। अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे,
तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे॥ किन्तु ये आर्यिकाएँ और ब्रह्मचारिणियाँ गुरु के द्वारा प्रताड़ित किये जाने और जान से मरवा देने की धमकी से भयभीत होकर उनसे शीलभंग करवाती रहीं, और दूसरों का शीलभंग होते देखती रहीं, जैसा कि उन्होंने अपने गुरु पर | आरोप लगाया है। (देखिए , आर्यिका विद्याश्री का शपथपत्र अनुच्छेद-4)।
3.आगम में आज्ञा दी गयी है कि धर्म से विचलित होते हुए स्वयं का तथा अन्य साधर्मी का उपदेश आदि के द्वारा स्थितीकरण किया जाना चाहिए। किंतु इन आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों ने, न अपना स्थितीकरण किया, न अपने गुरु का, उल्टे गुरु के पास एकान्त में जाकर उनके लिए स्त्र परीषह उत्पन्न करती रहीं। ____4. बहुत बड़ा पाप हो जाने पर आगम में छेद प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रायश्चित्त पूरा होने के बाद गुरु पुन: दीक्षा देते हैं। इन आर्यिकाओं ने किसी अन्य आचार्य के पास जाकर छेदप्रायश्चित्तपूर्वक पुनः दीक्षा ग्रहण | नहीं की। पाप से पतित रहते हुए भी आर्यिका जैसे पवित्र और वंदनायोग्य पद पर आसीन रहकर श्रावकों की श्रद्धा
और भक्ति का शोषण करती रहीं और कर रही हैं। ___5. 'ज्ञानार्णव' में सत्यमहाव्रत का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि “जब धर्म का नाश होने लगे, आचार के ध्वस्त होने की नौबत आ जाय और समीचीन सिद्धान्त संकट में पड़ जाय, तब इनके सम्यक् स्वरूप का प्रकाशन करने के लिए ज्ञानियों को स्वयं ही मुँह खोलना चाहिए"(9/15)। किंतु वरिष्ठ आर्यिकाएँ (उन्हीं के कथनानुसार)
-दिसंबर 2004 जिनभाषित 5
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