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यशस्वी गुरु स्तुति
कुन्द कुन्द भगवन्त सदृश तुम, परम्परा संवाहक हो । त्याग तपस्या में तुम गुरुवर, सतयुग जैसे साधक हो ॥ आगम अनुसारी तव चर्या, श्रमण संस्कृती कीरत हो । गुरुवर विद्यासागर तुम तो, चलते फिरते तीरथ हो ॥ 1 ॥
पिच्छीधारी दो सौ ऊपर, देश देश संचरण करें। बाल ब्रह्मचारी सहसाधिक, पढ़े-लिखे तव शरण रहें । वर्ष सहस्त्रों के जाने पर, जो इतिहास न था भूपर। वह अभिलेख बाल यतियों का, लिखा सूरि विद्यासागर ॥ 2 ॥
प्रियधर्मी हो, दृढ़धर्मी हो, अवद्यभीरू यतिवर हो । द्वादश अधिक शतक आर्यागण, कई संघ के गणधर हो । जैसे आगम में बतलाये, वैसे पाये हैं गुरुवर । शिष्याओं का अनुग्रह करते, श्रेष्ठ सूरि विद्यासागर ॥ 3 ॥
कर्तापन न रहे कार्य में, आत्मदृष्टि परिषह सहते । संकेतों में शिक्षा देते, 'ऐसा करो' नहीं कहते ॥ श्रुत गुरु के संकेत में चलकर, बने यशस्वी धरती पर। कोटि-कोटि वन्दन स्वीकारो, ज्ञान शिष्य विद्यासागर ॥ 4 ॥
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• आर्यिका मृदुमति जी
विनय भाव से गुरु आज्ञा को, स्वयं पालते दिखते हैं। गुरु भक्ति का दीप निरन्तर, पग-पग लेकर चलते हैं । धन्य ! ज्ञानसागर गुरु भक्ति, धन्य बने गुरु से गुरुवर । जुग जुग जीवो! इस धरती पर, मेरे गुरु विद्यासागर ॥ 5 ॥
विद्याधर से विद्यासागर, बने सूरि विद्यासागर। आज विश्व तव महिमा गाता, सूरी पद के हो आगर ।। ज्ञान सिन्धु से भरकर लाये, रत्नत्रय की तुम गागर । ज्ञान रतन को लुटा रहे हो! जयवन्तो विद्यासागर ॥ 6 ॥
सच्ची श्रद्धा ज्ञान चरण तप, वीर्याचार सुहाते हैं। स्वयं चलें जिन पर गुरुवर, शिष्यों को तथा चलाते हैं ॥ छत्तिसगुण से भरित रहे हो, दीक्षा शिक्षा गुण आगर । चार संघ मणियों के नायक, जयवन्तो विद्यासागर ॥ 7 ॥
गुरुजनों की विनय न भूलें, प्रेमभाव हो अनुजों में । विस्मृत निज कर्तव्य न होवे, रहे एकता 'मृदु' मन में ॥ यही गुरु का मंत्र कुशल-मंगल करता जीवे भूपर । सुखी रहें सब, सुखी करें गुरु, मंगलमय विद्यासागर ॥ 8 ॥
दोहा
सदा वज्र सम दृढ़वती निजव्रत पालन काज । मृदुतम पर उपकार में कुसुम सदृश गुरु राज ॥ 1 ॥
सूरिपदारोहण दिवस उत्सव हो जयवन्त ! 'मृदुमति' मंगल भावना जुग जुग जीओ सन्त ॥ 2 ॥
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