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कहा - केवल सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल को भी | नवीन बातों पर प्रकाश डाला है, उनका उल्लेख करना गणधरादिने देव-जैसा उच्च कहा है। जैसे भस्माच्छादित आवश्यक है। अंगार अपने आन्तरिक तेज से सम्पन्न रहता है, भले ही
स्वामी कार्तिकेय ने सम्यक्त्व के उपशम, क्षयोपशम भस्म से ढके होने से उसका तेज लोगों को बाहर न दिखे। |
और क्षायिक भेदों का स्वरूप कहकर बताया कि आदि के सम्यक्त्व जैसे आत्मिक अन्तरंग गुण का कोई बाह्य रूपरंग | दो सम्यक्त्वों को. तो यह जीव असंख्य बार ग्रहण करता नहीं है कि बाहर से देखने में आवे।
और छोड़ता है, किन्तु क्षायिक को ग्रहण करने के बाद वह ___ इस वर्णन से उनके भस्मक-व्याधि-काल के अनुभव | छूटता नहीं और उसे तीसरे या चौथे भव में निर्वाणपद प्राप्त परिलक्षित होते हैं, जब कि उस व्याधि के प्रशमनार्थ विभिन्न कराता है। इन्होंने वीतराग देव, दयामयी धर्म और निर्ग्रन्थ देशों में विभिन्न वेष धारण करके उन्हें परिभ्रमण करना पड़ा | गुरु के माननेवाले को व्यवहार-सम्यग्दृष्टि कहा है। सम्यक्त्व था और लोगों के मुखों से नाना प्रकार की निन्दा सुननी पड़ी सर्व रत्नों में महारत्न है. सर्व योगों में उत्तम योग है. सर्व थी। पर वे बाह्य वेष बदलते हुए भी अन्तरंग में सम्यक्त्व से | ऋद्धियों में महा ऋद्धि और यही सभी सिद्धियों को करने सम्पन्न थे।
वाला है। सम्यग्दृष्टि दुर्गति के कारणभूत कर्म का बन्ध नहीं ___जाति और कुल के मद करनेवालों को लक्ष्य करके
करता है और अनेक भवबद्ध कर्मों का नाश करता है। कहा- जाति-कुल, तो देहाश्रित गुण हैं। जीवनभर उच्च- ___आचार्य अमृतचन्द्र ने बताया कि मोक्षप्राप्ति के लिए गोत्री बना देव भी पाप के उदय से क्षण भर में कुत्ता बन सर्वप्रथम सभी प्रयत्न करके सम्यक्त्व का आश्रय लेना जाता है, और जीवनभर नीच-गोत्र-वाला कुत्ता भी मरकर
चाहिए. क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र समीचीन पुण्य के उदय से देव बन जाता है।
होते हैं। इन्होंने जीवादि तत्त्वों के विपरीताभिनिवेश-रहित सम्यक्त्व की महत्ता बताते हुए उन्होंने कहा
श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा। निर्विचिकित्सा अंग के वर्णन में सम्यग्दर्शन, तो मोक्षमार्ग में कर्णधार है। इसके बिना न कोई
यहाँ तक कहा कि इस अंग के धारक को मल-मूत्रादि को भवसागर से पार हो सकता है और न ज्ञान-चारित्ररूप वृक्ष
देखकर ग्लानि नहीं करनी चाहिए। उपगूहनादि शेष चार की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल-प्राप्ति ही हो सकती
अंगों का स्व और पर की अपेक्षा किया गया वर्णन अपूर्व है। सम्यक्त्व-हीन साधु से सम्यक्त्व-युक्त गृहस्थ मोक्षमार्गस्थ एवं श्रेष्ठ है। तीन लोक और तीन काल में सोमदेवसूरि ने अपने समय में प्रचलित सभी मतसम्यक्त्व के समान कोई श्रेयस्कर नहीं और मिथ्यात्व के मतान्तरों की समीक्षा करके उनका निरसन कर सत्यार्थ समान कोई अश्रेयस्कारी नहीं है। अन्त में परे सात श्लोकों | आप्त, आगम और पदार्थों के श्रद्धान को सम्यक्त्व और द्वारा सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए उन्होंने | अश्रद्धान को मिथ्यात्व कहा। सम्यक्त्व के सराग और बताया-इसके ही आश्रय से जीव उत्तरोत्तर विकास करते वीतरागरूप दो भेदों का, उपशमादिरूप तीन भेदों का और हए तीर्थंकर बनकर शिव-पद पाता है।
आज्ञा, मार्ग आदि दश भेदों का वर्णन कर उसके 25 दोषों कुन्दकुन्द स्वामी के सभी पाहुड सम्यक्त्व की महिमा
को बतलाकर आठों अंगों का वर्णन प्रसिद्ध पुरुषों की से भरपूर हैं, फिर भी उन्होंने इसके लिए दंसणपाहुड की
विस्तृत कथाओं के साथ किया है। प्रस्तुत संग्रह में कथास्वतंत्र रचना कर कहा है कि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति ही
भाग छोड़ दिया गया है। वास्तविक भ्रष्ट है, चारित्र-भ्रष्ट हुआ नहीं, क्योंकि दर्शन- चामुण्डराय ने जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग के श्रद्धान को भ्रष्ट निर्वाणपद नहीं पा सकता। दर्शन-विहीन व्यक्ति वन्दनीय सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाकर सम्यक्त्वी जीव के संवेग, नहीं है। सम्यक्त्वरूप जल का प्रवाह ही कर्म-बन्ध का निर्वेग, आत्म-निन्दा, आत्म-गर्हा, शमभाव, भक्ति, अनुकम्पा विनाशक है। धर्मात्मा के दोषों को कहनेवाला स्वयं भ्रष्ट है। और वात्सल्य गुणों का भी निरूपण किया है। सम्यक्त्व से ही हेय-उपादेय का विवेक प्राप्त होता है। । ___ आ. अमितगति ने अपने उपासकाचार के दूसरे अध्याय सम्यक्त्व ही मोक्षमहल का मूल एवं प्रथम सोपान है।
| में सम्यक्त्व की प्राप्ति, और उसके भेदों का विस्तृत स्वरूप
। सम्यक्त्व-विषयक उक्त वर्णन को प्रायः सभी परवर्ती | वर्णन करते हुए लिखा है कि वीतराग-सम्यक्त्व का लक्षण श्रावकाचार-रचयिताओं ने अपनाया, फिर भी कुछ ने जिन | उपेक्षाभाव है और सराग-सम्यक्त्व का लक्षण प्रशम, संवेग,
-दिसंबर 2004 जिनभाषित 15
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