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________________ लिखते हैं कि यदि अव्रती पुरुष भी समाधिमरण करता है तो उसे | गई सल्लेखना से पुरुष दुःखों से रहित हो निःश्रेयस् रूप सुखसुगति की प्राप्ति होती है और यदि व्रती श्रावक भी असमाधि में | सागर का अनुभव करता है अहमिन्द्र आदि के पद को पाता है मरण करता है तो उसे दुर्गति की प्राप्ति होती है। "न केवल | तथा अंत में मोक्ष सुख को भोगता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सल्लेखना मनुष्य ही अपितु पशु भी समाधिमरण के द्वारा आत्म कल्याण कर | को धर्मरूपी धन को साथ ले जाने वाला कहा है।" सोमदेवसूरि सकता है। उदाहरण से स्पष्ट किया गया है कि अत्यंत क्रूर स्वभाव | सल्लेखना का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सल्लेखना वाला सिंह भी मुनि के वचनों से उपशांत चित्त होकर और संन्यास | के बिना जीवन भर का यम, नियम, स्वाध्याय, तप, पूजा एवं दान विधि से मरकर महान् ऋद्धिवान देव हुआ। तत्पश्चात् मनुष्य एवं | निष्फल है। जैसे एक राजा ने बारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा, देव होता हुआ अंत में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के | किन्तु युद्ध के अवसर पर शस्त्र नहीं चला सकता तो उसकी शिक्षा वर्धमान नामक पुत्र हुआ। स्पष्ट है कि सल्लेखना सबके लिए | व्यर्थ रही, वैसे ही जो जीवन भर व्रतों का आचरण करता रहा कल्याणकारी है तथा प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाले मुनीश्वर, व्रती किन्तु अंत में मोह में पड़ा रहा तो उसका व्रताचरण निष्फल है। एवं अव्रती सब इसके अधिकारी हैं। पण्डितप्रवर आशाधर के लाटी संहिता में कहा गया है कि वे ही श्रावक धन्य हैं, जिनका अनुसार जन्मकल्याणस्थल, जिनमंदिर, तीर्थस्थान एवं निर्यापकाचार्य | समाधिमरण निर्विघ्न हो जाता है। उमास्वामीकृत, श्रावकाचार, का सान्निध्य सल्लेखना के लिए उपयुक्त स्थान हैं।" श्रावकाचारसारोद्वार, पुरुषार्थानुशासन, कुन्दकुन्द श्रावकाचार, पद्मकृत सल्लेखना में अनशन आदि के द्वारा शरीर को कृश करते | श्रावकाचार तथा दौलतराम कृत क्रियाकोष में सल्लेखना को जीवन हुए उसे त्यागा जाता है। अतः कुछ लोग इसे आत्महत्या जैसे | भर में तप, श्रुत एवं व्रत का फल तथा महर्द्धिक देव एवं इन्द्रादिक गर्हित शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसी कारण उन्होंने अप्रमत्तवत् | पदों को प्राप्त कराने वाला कहा गया है। हेतु देकर सल्लेखना में हिंसापने का निराकरण किया है। केवल तत्वार्थसूत्र में जीविताशंसा, मरणाशंसा, सुखानुबन्ध और प्राणों का विघात मात्र हिंसा नहीं है, अपितु उसमें प्रमादजन्यता | निदान इन पाँच को मारणान्तिकी सल्लेखना के अतिचार कहा आवश्यक है। अर्थात् जिस प्राण विनाश में रागद्वेष रूप प्रवृत्ति है, | गया है। पूजादि देखकर जीने की इच्छा करना जीविताशंसा, पूजादि वहीं हिंसा है, शेष नहीं। कभी-कभी अप्रमाद में भी द्रव्यप्राणों | न देखकर मरने की इच्छा करना मरणाशंसा, मित्रों की प्रति अनुराग का विघात दृष्टिगोचर होता है। मुनि के ईर्यासमितिपूर्वक गमन | रखना मित्रानुराग, सुखों का पौन:पुन्येन स्मरण सुखानुबंध तथा तप करने में भी क्षुद्र जीव-जंतुओं का प्राणविनाश संभव है। यह हिंसा का फल भोग के रूप मे चाहना निदान कहलाता है। यदि ये नहीं है, क्योंकि हिंसा का प्रयोजक हेतु प्रमाद यहाँ नहीं है। अज्ञानवश या असावधानीवश होते हैं तब अतिचार हैं तथा जानबूझ सल्लेखना में भी हिंसा का प्रयोजक हेतु प्रमाद न होने से उसे | कर किये जाते हैं तो अनाचार। अतिचार से सल्लेखना में दोष आत्महत्या कहना अविचारित कृत्य है। जैनदर्शन में हिंसा रागादि | उत्पन्न होता है किन्तु अनाचार से सल्लेखना नष्ट हो जाती है तथा विकारों का पर्यायवाची है। यदि प्राणविनाश को हिंसा का | दुर्ध्यान हो जाने से कुगति की प्राप्ति होती है। अतः सल्लेखना में लक्षण माना जायेगा तो वह अव्याप्ति और अतिप्याप्ति दोषों से शिथिलता सर्वथा त्याज्य है। यशस्तिलकचम्पूगत, उपासकाध्ययन, दूषित होगा। अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं कि अवश्यंभावी मरण के | | लाटीसंहिता, हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार, पुरुषार्थानुशासन, समय कषायों को कृश करने के साथ शरीर के कृश करने में रागादि | धर्मरत्नाकार, क्रियाकोष आदि श्रावकाचारविषयक ग्रंथों में भी इन्हीं भावों के न होने से सल्लेखना आत्मघात नहीं है। हाँ, यदि कोई | पाँचों अतिचारों का वर्णन है।। कषायविष्ट होकर श्वासनिरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादि के द्वारा उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन धर्म में सल्लेखना प्राणों का घात करता है तो वह वास्तव में आत्मघात है। सल्लेखना साधक की साधना का निकष है। यह तप, श्रुत, व्रत आदि का में कषायों का सद्भाव नहीं है अत: वह तो अहिंसा की सिद्धि के | फल है तथा इसका फल सुगति की प्राप्ति है। क्षुल्लक जिनेन्द्र लिए ही है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भी आत्महत्या में घृणा, वर्णी के शब्दों में सल्लेखना वस्तुतः शांति के उपासक की आदर्श असमर्थता, अहंकारी प्रवृत्ति, हीनता आदि भाव होते हैं। ये सल्लेखना मृत्यु है। एक सच्चे वीर का महान् पराक्रम है। इससे पहले कि में नहीं है। आत्मघात एक क्षणिक मनोविकृति है, जबकि सल्लेखना | शरीर जबाब दे, वह स्वयं समतापूर्वक उसे जबाब दे देता है और सुविचारित कार्य। आत्महत्या में आवेश तथा छटपटाहट होती हैं, | अपनी शांति की रक्षा में सावधान रहता हुआ उसी में विलीन हो जबकि सल्लेखना में प्रीति तथा स्थिरता । अतः स्पष्ट है कि सल्लेखना जाता है। सल्लेखना जीवन के परम सत्य मरण का हँसते-हँसते आत्मघात नहीं है। विविध सम्प्रदायों में प्रचलित जलसमाधि, वरण है। मृत्यु से निर्भयता का कारण है। पं.सूरजचन्द्र जी समाधि अग्निपात, कमलपूजा, भैरवपूजा आदि द्वारा प्राणविनाश में धर्म मरण में कहते हैं - मानने की प्रचलित प्रथायें थीं, किन्तु इन्हें सल्लेखना के समान मृत्युराज उपकारी जिय को, तन से तोहि छडावै। नहीं माना जा सकता है। क्योंकि इनके मूल में कोई न कोई नातर या तन बंदीगृह में, पर्यो पर्यो बिललावै॥ भौतिक आशा या अन्य प्रलोभन विद्यमान रहता है, जबकि ___ अस्तु हमें सल्लेखना हो-इसी पवित्र भावना के साथ विराम। सल्लेखना की स्थिति ऐसी नहीं है। सन्दर्भ आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवन के अंत में धारण की । 1. सम्यकायकषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां नवम्बर 2004 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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