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________________ जिज्ञासा समाधान पं.रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - सुरेश चन्द्र वरौलिया, आगरा उपरोक्त के अलावा इतिहास के अन्य भी बहुत से प्रमाणों जिज्ञासा - जैन आगम में सर्वप्रथम कौन सा शास्त्र | के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य गुणधर का लिपिबद्ध हुआ है? काल, आचार्य पुष्पदंत तथा भूतबलि से पूर्व का रहा है। अत: समाधान - वर्तमान उपलब्ध समस्त जैन शास्त्रों में | सर्वप्रथम लिपिबद्ध ग्रंथ 'कषायपाहुड़' मानना चाहिये। प्राचीनतम ग्रंथराज दो ही माने जाते हैं यह भी जानने योग्य है कि इन महान श्रुतधराचार्यों द्वारा, 1. श्रीकषाय पाहुड़ ग्रंथ में अपना नाम या समय लिखने की परंपरा नहीं थी। अत: 2. श्री षखंडागम पूर्वापर प्रमाणों द्वारा ही इनके काल का निर्णय संभव हो पाता है। इन दोनों महाशास्त्रों में से सर्वप्रथम लिपिबद्ध शास्त्र के | इतिहासकार अन्य प्राचीन लिपिबद्ध ग्रंथों में विमलसूरि का संबंध में निम्न प्रमाणों के आधार से विचार करते हैं : 'पउमचिरउ,' आचार्य शिवार्य की 'भगवती आराधना', आचार्य 1. आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज (पू.आ.विद्यासागर जी | कुमारनंदि की 'कर्तिकेयानुपेक्खा' तथा आचार्य धरसेन के महाराज के दीक्षा गुरु) द्वारा लिखित पुस्तक 'इतिहास के पन्ने' | 'जोणिपाहुड' के साथ ही आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य को भी पृष्ठ 14 पर लिखा है, 'सन् 25 ई. के लगभग आ.गुणधर ने | ईसा की प्रथम शताब्दी का मानते हैं। कषायपाहुड़ नामक आगम ग्रंथ का उद्धार, संकलन एवं प्रश्नकर्ता - सौ. सविता, नंदुरवार लिपिबद्धीकरण किया। इसी समय ई. 40-75 में गिरिनगर की जिज्ञासा - क्या ग्यारहवें गुणस्थान वर्ती साधु, गिरकर चन्द्रगुफा में आचार्य धरसेन निवास करते थे। लगभग 75 ई. में | दूसरे गुणस्थान को प्राप्त हो सकते हैं? आ.पुष्पदंत एवं भूतवलि द्वारा षट्खंडागम सिद्धांत के रूप में | समाधान - इस संबंध में आचार्यों के दो मत पाये जाते महावीर द्वारा उपदेशित आगमों के इस महत्त्वपूर्ण अंश का भी | हैं- 1. श्री धवला पुस्तक ५, पृष्ठ 1, पर कहा है 'उवसमसेढीदो उद्धार एवं संकलन हो गया। ओदिण्णणं सासण गमणाभावादो।' 2. डॉ. नेमिचन्द ज्योतिषाचार्य द्वारा लिखित 'तीर्थंकर | अर्थ - उपशम श्रेणी से उतरने वाले जीवों का, सासादन महावीर और उनकी आचार्य परंपरा' पृष्ठ 30 के अनुसार तो | में गमन करने का अभाव है। 'छक्खंडागम' प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से 'कषाय पाहुड़' के प्रणेता | भावार्थ - ग्याहरवें गुणस्थान से गिरकर साधु, सासादन गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध होता है। इस | गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता। यह आ. भूतवली महाराज का मत है। प्रकार आ.गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध हो 2. श्री जयधवल पु. 10 पृष्ठ 123 पर कहा हैजाता है। कसायोवसमणादो परिवदिदस्स दसण मोहणीय उवसंतद्धा अंतोमुहत्ती 3. पं. परमानंदशास्त्री द्वारा लिखित 'जैन धर्म का प्राचीन | सेसा अस्थि तिस्से छावलियावसेसाएप्पहुडिजाव तवद्धा चरिय इतिहास' भाग-2, पृष्ठ 68 पर लिखा है 'इस प्रकार आ.गुणधर | | समयोति ताव सासणगुणेण परिमाणेदुं संभवो। का समय ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी सिद्ध होता है।' श्री षट्खंडागम | अर्थ - कषयोपशमना (उपशांत मोह) से गिरे हुये जीव के काल के संबंध में आपने लिखा है आ.अर्हवली का सम्मेलन | के दर्शनमोहनीय के उपशमना का काल अंतर्मुहूर्त शेष बचता है। ई.पू. 66 में हुआ था। उसके बाद ही श्री षट्खंडागम की रचना | उसमें जब छह आवलि शेष रहें वहाँ से लेकर उपशामना काल के हुई थी।' अंतिम समय तक सासादन गुण रूप से परिणमन करना संभव है। 4. डॉ. राजाराम जैन द्वारा लिखित 'शौर सैनी प्राकृतभाषा भावार्थ - ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर साधु सासादन एवं उसके साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' पृष्ठ 31 पर लिखा है | | गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है। यह कषायपाहुड़ के चूर्णसूत्रकार 'कषाय पाहुड़' शौरसैनी प्राकृत का आद्य महत्वपूर्ण ग्रंथ है .... आचार्य यतिवृषभ का मत है। यह कहा जा सकता है कि 'षट्खंडागम' की ग्रंथ रचना पद्धति विषय सूक्ष्म है अतः हमको दोनों ही मत मानने योग्य हैं। 'कषाय पाहुड' की सूत्र गाथाओं पर आधारित रही है। श्रुतधराचार्यों प्रश्नकर्ता - कामताप्रसाद जी मुजफ्फरनगर की परंपरा में सर्वप्रथम आचार्य गुणधर का नाम आता है। पृष्ठ 33 जिज्ञासा- जो केवली भगवान. तीर्थंकर के समवशरण में पृष्ठ 37, पं.हीरालाल सिद्धांत शास्त्री, क्षु.जिनेन्द्रवर्णी तथा डॉ.देवेन्द्र | विराजमान रहते हैं, वे तीर्थंकर भगवान को नमोस्तु करते हैं या शास्त्री आदि कुछ गवेषक विद्वानों की ऐसी धारणा है कि आचार्य | नहीं? तेरहवें गुणस्थान में उनके कौन सा ध्यान होता है। गुणधर का काल ईसा पूर्व दूसरी सदी रहा होगा। समाधान - वंद्य वंदकभाव प्रशस्तराग का सूचक है। नवम्बर 2004 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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