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________________ प्राकृतिक चिकित्सा गर्भावस्था में आहार डॉ. वन्दना जैन जिसके लिये कोई उपमा न दी जा सके उसका नाम है। ली जायेगी तो मछली का तेल (कॉड लीवर ऑयल) खाना माँ। जिसकी कोई सीमा नहीं उसका नाम है माँ। जिसके प्रेम को पड़ेगा। अत: धूप लेना बहुत ही आवश्यक है। कभी पतझड़ स्पर्श न करे उसका नाम है माँ, यही नहीं प्रभु को धूप स्नान के समय मालिश करना अच्छा रहता है। पाने की पहली सीढ़ी है माँ। पर वह इस ममता का अहसास तभी गर्भवती के भोजन में लोह तत्व की मात्रा भी रहनी कर पाती है जब वह गर्भावस्था में थोड़ी सी सावधानी रखे। इस | चाहिये। लोहा रक्त का एक प्रधान घटक है। जन्म लेने के बाद समय की गई जरा सी असावधानी उसे इस अहसास से वंचित शिशु को माता के दूध पर निर्भर रहना पड़ता है, इसलिए बच्चे के भी कर सकती है। गर्भावस्था में रोगों से तथा प्रसव समय की शरीर में ऐसी व्यवस्था है कि शिशु माता के शरीर से यथेष्ठ मात्रा पीड़ाओं से स्त्री प्राकृतिक जीवन व्यतीत करके छुटकारा पा सकती | में लोहा खींचकर अपने यकृत में भविष्य के खर्च के लिए जमा है। इसके लिए कुछ बिन्दुओं पर विचार करना होगा। गर्भावस्था | रखे। इसी कारण बहुधा देखने में आता है कि दूध पिलाने वाली में आहार कैसा हो, गर्भिणी के लिए उचित अनुचित व्यवहार क्या | माता रक्त शून्य हो जाती है। इसलिए माता को चने का साग, हो। गर्भिणी चमत्कारी व्यायाम व प्राकृतिक उपचार क्या करें? चौलाइ, मैथी, पालक, पुदीना, किशमिश, खुमानी, सोयाबीन, तथा गर्भावस्था में शरीर संतुलन बनाये रखकर इस समय को और | तिल, गुड आदि लोह प्रधान वस्तुओं का अपने भोजन में उचित अधिक सुखमय बनाये रख सकते हैं। तथा गर्भपात से बचाव के | स्थान देना चाहिए। प्रतिदिन इनमें से किसी एक पदार्थ को कूटकर उपाय भी कर सकते हैं। एक कप रस निकालकर गुड के साथ लेना बहुत लाभकारी होता गर्भावस्था में माँ के भोजन से ही बच्चे का पोषण होता है। है। गर्भवती को विटामिन ई. की भी विशेष आवश्यकता होती है। अत: उसके भोजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इस समय जिसकी कमी से गर्भपात तक हो सकता है। विटामिन ई. अंकुरित अधिक भोजन की आवश्यकता नहीं होती, वरन अधिक पौष्टिक | मूंग और गेहूँ, पालक, सलाद के पत्ते, गेहूँ का चोकर हाथ कुटे भोजन की आवश्यकता होती है। अर्थात् भोजन की मात्रा न चावल और गुड़ में होता है। बढ़ाकर उसके गुणों को बढ़ाना चाहिये। इस समय यथेष्ठ मात्रा में पहले छह महिनों तक गर्भवती को शर्करा प्रधान खाद्य रक्षकारी खाद्य ग्रहण करना चाहिये। जैसे कैल्शियम, फास्फोरस, प्रचुर मात्रा में लेना चाहिये। इस समय बच्चे के शरीर को काफी लोहा और विटामिन ए,डी और ई का रहना आवश्यक है। जिससे शर्करा की आवश्यकता होती है। इस समय यदि माता के यकृत में भ्रूण का पोषण ठीक ढंग से हो सके और समय पर बच्चा बिना संचित शर्करा कम हो जाय तो यकृत की कार्य क्षमता का ह्रास हो कष्ट के जन्म ले सके। जाता है। और शरीर में विभिन्न दूषित पदार्थ जमा होने लगते हैं, गर्भावस्था में जब भ्रूण के शरीर की हड्डियों का गठन | जिससे गर्भिणी का रक्त विषाक्त हो जाता है। इसलिए पहले छह होता है उस समय उसे अधिक मात्रा में कैल्शियम और फास्फोरस | महिनों में गन्ने का रस खजूर गुड़ किशमिश खुमानी व मीठे फल की आवश्यकता होती है। यदि ये न हो तो प्रकृति, माता के शरीर आवश्यकतानुसार लेने चाहिये। जब गर्भ सात माह का हो जाय तो से उन्हें खींच लेने को वाध्य होती है। जिससे माता का स्वास्थ्य शुद्ध घी का प्रयोग अधिक करना चाहिये। इस समय घी कुछ बिगड़ता जाता है और वह दुर्बल हो जाती है। उसे सिरदर्द, | अधिक लेने से बच्चे का जन्म बिना कष्ट के होता है। थकावट, अनिद्रा, उल्टियाँ एक्सलेमसिया आदि रोगों के लक्षण अंतिम तीन महिनों में चावल और चपाती कम करके फल प्रकट होते हैं। यदि भ्रूण माँ के गर्भ से प्रचुर मात्रा में चूना ग्रहण न और दूध पर अधिक जोर देना चाहिये। क्योंकि इन दिनों में कर सके तो बच्चे को रिकेट्स रोग हो सकता है। और उसके दाँत | गर्भिणी को प्रोटीन की अधिक आवश्यकता रहती है। इससे माता खराब हो सकते हैं। के स्तनों में अधिक दूध उत्पन्न होता है और प्रसव के समय गर्भवती माता को दूध, चौलाई का साग, आवंला, बिना अधिक रक्तस्राव नहीं होता। प्रोटीन के लिएदूध,दही और पनीर मसाले का गुड़, तिल, सोयाबीन अधिक मात्रा में लेना चाहिये | पर अधिक निर्भर रहना चाहिए। क्योंकि इसमें कैल्शियम और फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में होता है। गर्भ के पहले महिनों में वसा तथा तली हुई चीजों से किन्तु कैल्शियम को पचाने के लिए विटामिन डी.की आवश्यकता | परहेज करना चाहिये तथा गर्भ के अंतिम दिनों में वसा (घी होती है। इसलिए प्रतिदिन स्नान से पहले कुछ देर धूप में बैठना | आदि) का प्रयोग करना चाहिये इससे बच्चा आसानी से होगा। चाहिये। धूप में बैठने से विटामिन डी. प्राप्त होता है। यदि धूप न | गर्भावस्था में अक्सर कब्ज हो जाती है उसके लिए कच्ची सब्जियों - नवम्बर 2004 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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