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________________ जीवादि की हिंसा का परित्याग कर दिया था। (28) इससे ज्ञात | पंचतंत्र एवं हितोपदेश की गणना इस देश के नीतिपरक / होता है, कि तपस्वी अर्जुन ने अपने महत् उद्देश्य की प्राप्ति के | उपदेशप्रद आख्यान साहित्य में होती है। इन कृतियों के महत्त्व लिए अहिंसा व्रत का आचरण किया था। को निरूपित किया गया है एवं हिंसा कर्म से दूर रहने का परामर्श नैषघचरित के प्रथम सर्ग में खिन्न मन नल अपने चित्तविनोद | है। पंचतंत्र के काकोलूकीयम् नामक तंत्र के अन्तर्गत चटक के लिए उपवन में जाता है। वहाँ तडाग पर एक स्वर्णिम हंस को कपिंजल तथा शशक शीध्रग की कथा में कहा गया है, कि देखकर उसे पकड़ लेता है। पहिले तो वह हंस राजा नल के हाथ महात्मा पुरुषों ने अहिंसा को अपना धर्म कहा है। वहाँ अहिंसा से बच निकलने का प्रयास करता है किन्तु उसमें जब वह विफल धर्म के पालन के लिए यूक, मत्कुण, दंशादिक्षुद्र जीवों की भी रक्षा रहता है तब वह राजा नल के उस कृत्य को अनुचित ठहराते हुए करने का आदेश है। (33) अहिंसा धर्म के परिपालनार्थ जीव हिंसा उससे प्राणत्राण का निवेदन करता है। दैव को सम्बोधित करते हुए सर्वथा वर्जित है। यज्ञ में पशुबलि की निन्दा करते हुए वहीं कहा हंस कहता है कि मैं ही जिसका इकलौता पुत्र हैं ऐसी वद्धावस्था गया है, जो लोग यज्ञ में पशुओं का वध करते हैं, वे मूढ़ हैं। वे से पीड़ित मेरी माता है तथा नवप्रसता पतिव्रता मेरी प्रिया है। उन | श्रुति वचन का सही अर्थ नहीं जानते। श्रुति में कहा गया है, कि दोनों का मैं ही एक मात्र सहारा हूँ। ऐसे मुझ निरीह को मारने में | अजों से यज्ञ करना चाहिए। यहाँ अज शब्द का अर्थ सप्तवर्षी आपको करुणा क्यों नहीं आती। (29) वह कहता है कि उसकी ब्रीहिधान्य है। न कि कोई पशु विशेष । ( 34 ) इस प्रकार पंचतंत्र में मृत्यु से उसकी असहाय वृद्धा माता, नवप्रसता पत्नी एवं नवजात | हिंसाचरण की जोरदार शब्दों में निन्दा की गयी है एवं अहिंसा शिशुओं को अनाथ ही समझो क्योंकि उन सबका एक मात्र सहारा | धर्म का प्रबल समर्थन किया गया है। वह ही है। इतना कहते हुए वह निश्चेतन हो जाता है। हंस को इस हितोपदेश में अहिंसा को स्पष्ट रूप से श्रेष्ठ धर्म मानते अवस्था में पाकर नल नरेश का करूणा जनित अहिंसा भाव | हुए कहा गया है कि परस्पर विरोधी धर्मशास्त्रों का भी इसमें एक जागता है तथा वह हंस को तत्काल मुक्त कर देता है। महाकाव्य | मत है कि अहिंसा परमधर्म है। ( 35 )अर्थात् जीवों का वध न करना में श्रीहर्ष को एक हंस पक्षी के माध्यम से राजा नल के मन में | कल्याण कारक है। हितोपदेश में ही कहा गया है कि जो मनुष्य अहिंसा भाव को जाग्रत करने में अच्छी सफलता मिली है। इस सब प्रकार की हिंसा से दूर हैं जो सब कुछ सह लेते हैं तथा जो प्रकार महाकाव्यों में अहिंसा भाव की पर्याप्त अभिव्यक्ति है। सबके आश्रयदाता हैं वे दिव्यलोक को प्राप्त करते हैं। गीति काव्य में अहिंसा की उपादेयता को जीवन की संस्कृत नाटकों में भी अहिंसा धर्म के परिपालन के संकेत सार्थकता के लिए स्वीकार किया गया है। नीतिशतक में मानवों के | मिलते हैं। अभिाज्ञान शाकुन्तल नाटक के प्रथम अंक में जब राजा लिए कल्याणमार्ग का निर्देश करते हए भर्तहरि ने कतिपय सत्रों दुष्यंत कण्व मुनि के आश्रम में मृग का आखेटक करते हुए प्रवेश का उल्लेख किया है। उनमें जीव हिंसा से दूर रहना तथा प्राणियों | करता है तो आश्रम से "मृग को मत मारो" - यह आवाज सुनाई पर दया करना सम्मिलित है। जीव हिंसा निवृत्ति को तो कवि ने | देती है। ( 36 ) इससे संकेत प्राप्त होता है कि कण्व मुनि के आश्रम कल्याण साधक उपायों में सर्वप्रथम स्थान प्रदान किया है ( 30 )इससे [ में मृगों अथवा प्राणि वध का निषेध था। ज्ञात होता है कि कवि ने अहिंसा को जीवन की सार्थकता के लिए | कालीदास ने तो पौधों तथा वृक्षों से फूल पत्तियाँ, तोड़ने महत्वपूर्ण माना है। | को भी पीड़ा कर्म / हिंसा कर्म माना है। इसीलिए कालिदास की गद्यकाव्य की प्रसिद्ध कृति कादम्बरी भारत की समकालीन | शकुन्तला आश्रम में पौधों अथवा वृक्षों से कोमल पल्लवों को नहीं संस्कृति का उत्तम अभिलेख है। इस कृति में भी अहिंसा की तोड़ती भले ही उसे पत्र-पुष्यों से अपने को अलंकृत करना प्रिय महत्ता को रेखांकित किया गया है। महर्षि जाबालि के आश्रम के | था। (37) महाकवि कालिदास की अहिंसा परिकल्पना का परिक्षेत्र वर्णन प्रसंग में कवि ने परिसंख्यालंकार के माध्यम से बतलाया है | अत्यंत व्यापक रहा है। कि उस आश्रम में श्यामलता (मलिनता)केवल होमाग्नि धूम में विक्रमोर्वशीय नाटक के पंचम अंक में एक प्रसंग आता ही प्राप्त थी, अन्यंत्र नहीं। किसी व्यक्ति के आचरण में श्यामलता | है, जहाँ महाराज पुरूखा के पुत्र कुमार आयु ने महर्षि च्यवन के अर्थात् मलिनता अर्थात परहिंसादि पापवृति नहीं थी। सभी | आश्रम में रहते हुए एक पक्षी को अपने बाण का निशाना बनाया अहिंसा का आचरण करते थे। इसी प्रकार तारापीडवर्णना में कहा | था। कुमार आयु का यह आचरण आश्रम विरूद्ध था। अत:महर्षि गया है कि उसके राज्य में योगसाधन (चित्तवृत्तिनिरोध के लिए | च्यवन के द्वारा उसे आश्रम से तत्काल निष्कासित कर दिया गया यमनियमादि अनुष्ठान) केवल मुनि ही करते थे, किन्तु पर हत्या के था। ( 38 ) संवेदनशील कालीदास प्राणि हिंसा को कभी क्षम्य नहीं लिए योग साधन अर्थात गुप्त घातक आचरण नहीं होता था। (32) | मानते। इससे महाकवि बाण की अहिंसा के प्रति प्रबल निष्ठा अभिव्यक्त नाटककार शूद्रक की हिंसा कर्म का समर्थन नहीं करते। होती है। | वे चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने मात्र से किसी को चाण्डाल नहीं 12 नवम्बर 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524291
Book TitleJinabhashita 2004 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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