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________________ मंगल प्रवचन समाधिस्थ मुनि श्री प्रवचनसागर जी की श्रद्धांजलि सभा के समय दिया गया प.पू. १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी का उद्बोधन जिस आत्मा के माध्यम से यह सारा संसार चलता रहता है । उसको ठीक कर दिया जाता है। और नहीं तो बीमा तो है, बीमा है उसकी बात अभी आपके सामने घंटों से कही जा रही है, इस कि नहीं, इसलिए यदि जीवन की बीमा नहीं तो बनाइयो। हमारी आत्म तत्त्व को जानने के लिए ..... गुब्बारा होता है, उसमें हवा | बात सुनकर नहीं, पूछताछ कर नहीं, विश्वास के साथ बनाइयो। रहती है, यदि हवा निकाल दी जाए, तो उसका अस्तित्व ही नहीं | ऐसे जो जाने वाले थे उन्होंने उस गाड़ी को छोड़ दी व अपना मार्ग रहता। उसी प्रकार आत्मतत्त्व देखने में नहीं आता किन्तु ध्यान रहे | फिर से चलना प्रारंभ शुरू कर दिया। शरीर को उन्होंने शरण नहीं पूरा का पूरा संचालन उसी के हाथों में है। अब वह स्वतंत्र रहना | रखा। शरीर का जो दास होता है उसकी बड़ी बुरी दशा होती है। चाहे तो रह सकता है, लेकिन वह स्वतंत्र न रहकर के (Second) | और गाड़ी से उतरना भूल जाता है। रूप में आ जाता है। अत: दूसरा रूप वह शरीर को ग्रहण कर लेता उतरना तो था ही वह गिर जाता है। आप जिसकी बात है उसमें स्वयं को रख देता है। यह अनादिकालीन इस तरह की | कर रहे हैं, तो जब सामान्य ड्रायवर भी गाड़ी से इतना मोह नहीं परम्परा संसारी जीव के साथ चल रही है। एक रहस्य को समझ | करता, तो वह कैसे गाड़ी से मोह कर सकते हैं, उनके (संयमी) लेते हैं, ज्ञात कर लेते हैं, तो फिर दुनिया के सारे-सारे परिश्रम को लिए तो नई अच्छी गाड़ी मिल गई है। तो वे बिना गाड़ी के हैं ही छोड़ देते हैं। क्योंकि मार्ग से भटकना व मार्ग में चलना दो | नहीं। जब भगवान के डिपार्टमेंट में हमें कुछ काम मिला है। वह अलग-अलग बातें हैं। मार्ग होकर के भटकना संभव नहीं व जब | रास्ता मिला है तो वह कार्य डिपार्टमेंट का हमेशा मिलता रहेगा। तक कि वह भटका रहता है तब तक वह मार्ग में नहीं। तो मार्ग ये चिंता का विषय है ही नहीं जहाँ वो जाएंगे वहाँ से उनको गाड़ी में ऊपर चढ़ने के बाद भटका नहीं जाता, किन्तु उसको प्राप्त किया | मिल जाएगी। एक-एक कदम पर, एक -एक सैकण्ड पर, बस जाता है। आज तक जो भटका है वह चलना नहीं भटकना था। | जोर लगाने की आवश्यकता मात्र है, बल्कि इसकी भी आवश्यकता अब चलना ये है जो प्रारंभ किया गया किसी एक दिशा में चलना नहीं है, अपने आप वह ज्ञात होता चला जाता है, कौन सी गाड़ी होता है भटकना नहीं। उसमें गति कम भी की जाती है वो कहीं | कौन से रोड पर है, तो वहाँ जो लोग होते हैं वे पूछताछ करते रहते ज्यादा भी रहती है। गतिमान व्यक्ति जो लक्ष्य की ओर जा रहा है | हैं। जैसे ही एक स्टेशन से गाड़ी छूटती है, तो दूसरे स्टेशन पर वह मार्गी कहलाता है उसकी चर्चा हो रही है। एक व्यक्ति ने मार्ग पहले से अवगत करा दिया जाता है कि गाड़ी छूट चुकी है। जैसे को चुना मार्ग पर आरूढ़ हुए मार्गी बने व कुछ सामर्थ्य से चलना ही गाड़ी छूटती है तो उनका यह कार्य होता है कि इधर-उधर से प्रारंभ किए। मैं संक्षेप में कह रहा हूँ तो गाड़ी कई प्रकार की हुआ | कोई गाड़ी न आए जिस पटरी में गाड़ी आ रही है उसकी सुरक्षा करती है। हमारे पास टिकट है। हम तो मार्ग पकड़ चुके हैं। मार्ग | की जाती है। इसीप्रकार यह भी है जिसके पास सम्यक्दर्शन है, बनता नहीं उसे बनाया जाता है। तो कुशल ड्रायवर ने सोचा ये | सम्यक्ज्ञान है व सम्यक्चारित्र जो थोड़े समय के लिए मिलता है, धोखा देने वाला है, ये हमें संकेत दे दिया। जैसे कोई भी ट्रांसफोर्ट | तो वह अपनी अंतिम दशा में अपने कार्य सुरक्षित रखता है। इस कंपनियों में जो लोग काम करते हैं वे अपने मालिक को कह देते | प्रकार प्रवचनसागर महाराज जी ने केवल गाड़ी चेन्ज की है। जब हैं कि ऐसा-ऐसा हो गया, तो वह तो दगाबाज नहीं है, तो जो मार्गी | तक उनको मुक्ति नहीं मिलती तब तक टिकट तो है ही, तो हमें तो है ऐसा नहीं कि मार्ग को छोड़कर अन्यत्र चले जाएँ। ड्रायवर से | कोई चिंता का विषय ही नहीं है। आज एक गाड़ी छूट गई तो कह दिया जाता है कि यदि पंचर हो, एक्सीडेंट हो जाए, गिर | उनके पास पूरा का पूरा पता है। जाए, टूट जाए, फूट जाए तो जल्दी से ड्रायवर को सिखा दिया | वे ऐसे कुशल ड्रायवर रहे व थे इसमें कोई संदेह नहीं जाता है कि सर्वप्रथम जहाँ गाड़ी में कुछ हो जाता है गाड़ी से नीचे | केवल गाड़ी चेंज हुई है। ड्रायवर चेंज नहीं और मुक्ति कब उतर जाएं व अपनी रक्षा कर लें। और जब गाड़ी जाकर गड्ढे में | उपलब्ध होगी इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं। ये गाडियाँ गिर जाती है, ड्रायवर खड़े होकर देखता रहता है। बाद में जाकर | तो बदलना होगा, ये ध्यान रखो, ये गाड़ी हमेशा के लिए नहीं है। जनवरी 2003 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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