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सम्पादकीय
आदर्श समाधि-मरण
समाधिसम्राट् संतशिरोमणि प.पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज के संघस्थ श्रेष्ठ साधक प.पू. मुनि श्री प्रवचनसागर जी महाराज का सल्लेखनापूर्वक आकस्मिक, किंतु आदर्श समाधि मरण दिनांक ९.११.२००३ को कटनी में हो गया। दो चार दिन में ही अप्रत्याशित रूप से घटी हुई यह घटना यद्यपि संघ के साधुजनों एवं संघ से जुड़े श्रद्धालु, श्रावकश्राविकाओं के लिए सहसा आश्चर्य मिश्रित दुःख की बात हो सकती है, तथापि मुनिश्री ने रोग के ऐसे भयंकर आकस्मिक आक्रमण के समय भी जिस प्रकार परिणामों में समता धारण करते हुए आत्म चेतना सहित अत्यंत शान्त भाव से सल्लेखनापूर्वक देहत्याग किया, वह हम सब के लिए गौरव एवं प्रसन्नता का विषय है।
बेगमगंज में जन्मे बाल ब्रह्मचारी चन्द्रशेखर जी जिस प्रकार शान्त, मौन एवं आत्मस्थ रहा करते थे, उनके जीवन की वही छवि मुनि अवस्था में भी बनी रही। ब्रह्मचारी निरंजन जी और ब्रह्मचारी चन्द्रशेखर जी की जुगल जोड़ी का साथ शिक्षाकाल, दीक्षाकाल और साधनाकाल में सर्वदा बना रहा। एक बार युगल ब्रह्मचारी मेरे निमंत्रण पर किशनगढ़ शिक्षण शिविर में शिक्षक के रूप में आए थे। तब मुझे उनके निकट रहने का अवसर मिला था। वैसे उदासीन आश्रम इंदौर में अनेक बार उनसे मिलना होता रहा। मैं उनकी निस्पृह साधना से अत्यंत प्रभावित था। दोनों ब्रह्मचारियों के मन में धीरेधीरे वैराग्य बढ़ रहा था और वे प.पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज के साथ मुनिदीक्षा प्राप्त कर पू. मुनि निर्णयसागर जी और मुनि प्रवचनसागर जी बन गए।
संयोग की बात है कि समाधि के केवल १५-२० दिन पहले ही प.पू. आचार्यश्री ने दोनों मनिराजों को स्वतन्त्र बिहार के लिए अमरकंटक से कटनी की ओर भेजा था। अनायास क्षणकराज मुनि श्री प्रवचनसागर जी की समाधि का सौभाग्य कटनी की धरती को प्राप्त हुआ।
मैं. तथा बम्बई के नरेश भाई व जयसख भाई. हम तीनों शिक्षणशिविर में भाग लेने ईसरी जा रहे थे। मार्ग में खजुराहो में पू. मुनिश्री की अस्वस्थता के समाचार मिले और हम उसी समय कटनी पहुँच गए। कटनी में मैं, पू. मुनि श्री प्रवचनसागर जी के पास दिनांक २९.११.२००३ को प्रात: लगभग १.५ घण्टा रहा। मैंने पाया कि मुनिश्री के अधो शरीर की मांस पेशियाँ जकड़ रही थीं, किंतु मुनिश्री की चेतना पूर्णत: जाग्रत थी और उपयोग आत्मस्वरूप में लीन था।
लगभग तीन माह पूर्व अमरकंटक वर्षायोग के समय मुनिश्री को प्रातः काल शौच जाने के बाद हाथ धोते समय एक कुत्ते ने हाथ में काट लिया था। कुत्ते के काटने का घाव साधारण था और उसका ठीक उपचार हो गया था। मुनिश्री ने काटने वाले जिस कुत्ते को पहचान कर बताया, वह कुत्ता ठीक हालत में स्वस्थ घूम रहा था। इसलिए उसके पागल होने का संदेह न स्वयं मुनिश्री को हुआ और न किसी और को। संभवत: मुनिश्री के द्वारा कुत्ते को पहचानने में भूल हुई हो।
जब समाधि के दो चार दिन पूर्व मनिश्री को पानी देखने से घबराहट होने लगी. तब यह सन्देह हआ कि मनिश्री को उस समय पागल कत्ते ने काट लिया था। किंत मनिश्री की संयम साधना का ही यह ज्वलन्त चमत्कार रहा कि पागल कत्ते के काटे जाने पर प्रायः हो जाने वाली शारीरिक और मानसिक विकृतियाँ मनिश्री को सर्वथा नहीं हई। इधर शरीर में विष का प्रभाव बढ रहा था और उधर मनिश्री के उपयोग में आत्म चेतना बढ रही थी। मनिश्री ने सचेत अवस्था में चारों प्रकार के आहार का त्याग किया और पीछी हाथ में लेकर प.प. आचार्यश्री को परोक्ष नमोऽस्त किया। रत्नत्रय की आराधना के बल पर मुनिश्री ने इस भयानक रोग के उपसर्ग को समतापूर्वक सहन कर सामने खड़ी मौत पर निराकुल परिणामों से मानसिक विजय प्राप्त की और एक उत्कृष्ट समाधिमरण का आदर्श उपस्थित किया। ऐसे मत्यविजेता उपसर्गजयी समतापरिणामी महान् मुनिराज श्री प्रवचनसागर महाराज को मेरा बारंबार नमन।
मूलचंद लुहाड़िया
- जनवरी 2003 जिनभाषित
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