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भट्टारकों का स्थान समाज के शासक के रूप में होने से उनके । ने लिखा है:- ' मैं नहीं जानता कि पिछले कई सौ वर्षों में किसी लिए मंत्र साधना इष्ट ही समझी जाती थी। सूरत शाखा के भट्टारक | भी जैन विद्वान ने कोई इस प्रकार का समालोचनात्मक ग्रंथ इतने मल्लि भूषण ने पद्मावती की आराधना की थी तथा लाड बागड | परिश्रम से लिखा होगा और यह बात तो बिना किसी हिचकिचाहट गच्छ के भ. महेन्द्र सेन ने क्षेत्रपाल को संबोधित किया था, ऐसे के कही जा सकती है कि इस प्रकार के परीक्षा लेख जैन साहित्य उल्लेख प्राप्त हुए हैं।'
में सबसे पहले हैं।' मुख्तार साहब की मान्यताओं का तात्कालिक पृष्ठ २२१ 'भट्टारक सम्प्रदाय के इतिहास में जैन समाज परिणाम यह हुआ कि अनेक जैन विद्यालयों के पाठ्यक्रम में की अवनति का ही इतिहास छिपा है। जैन समाज की अनेक संशोधन किया गया और भट्टारकीय परंपरा की सामग्री को पठन पत्रिकाओं धर्म मंगल, तीर्थंकर आदि में समय समय पर भट्टारक | क्रम से अलग कर दिया गया। सम्प्रदाय के बारे में लेख छपे हैं। धर्ममंगल ने सन् १९९७ भट्टारक | श्री ब्र. चुन्नी भाई देसाई (राजकोट वाले) द्वारा लिखित सम्प्रदाय विशेषांक निकाला था जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'श्रमण संस्कृति में संघ भेद' सन् १९७२ में उज्जैन जैन है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ. विद्याधर जोहरापुर ने एक शोध प्रबंध समाज ने प्रकाशित की उसमें 'भट्टारक मार्ग की उत्पत्ति' नामक 'भट्टारक सम्प्रदाय' लिखा है जो प्रकाशित भी हो गया है। स्व. अध्याय में दिल्ली के बादशाह द्वारा जैन मुनिराज को वस्त्र धारण पं. नाथूराम जी प्रेमी ने एक पत्र श्री पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री | करने के लिए बाध्य करने का कथानक लिखने के बाद पृष्ठ ६९ वाराणसी को दिनांक १९.१२.५६ को लिखा था जो जैन संदेश | पर आगे लिखा है। 'अनन्तर भटारक लोगों ने प्रभुता और संपत्ति पत्रिका के शोधांक १५ में छपा है उसमें लिखा है' मुझे अब ऐसा प्राप्त करके निवृत्ति प्रधान जैन धर्म को अत्यंत दूषित एवं प्रवृत्ति मालूम होता है कि वस्त्र को अपवाद मानने वाले यापनीयों की ही | प्रधान बना दिया। अपने को मूलसंघ आम्नाय के कहकर मनमानी उत्तराधिकारिणी भट्टारक परंपरा है।
प्ररूपणा करना शुरू किया। इन लोगों ने अपनी गद्दी पर ब्राह्मणों श्री डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य ने 'श्री पं. जुगल को बैठाया और सव वैष्णव धर्म के पूजन गोमूत्र से प्रतिमा का किशोर जी मुख्तार-कृतित्त्व और व्यक्तित्व, पुस्तक लिखी है जो प्रक्षाल करना, योनि का पूजन आदि सब ही कुछ शास्त्रों में लिख सन् १९६८ में अ.भा. जैन विद्वत् परिषद् द्वारा प्रकाशित हुई है। | मारा। नए-नए ग्रंथ बनाकर प्रचार कर दिया। मुकुट सप्तमी में उस पुस्तक के पृ. १५-१६ में लिखा है 'जैन धर्म में भट्टारकों का | भगवान को मुकुट पहनाना आदि सब कुछ वैष्णव धर्मानुकूल कर स्थान अत्यंत सम्माननीय रहा है। ये भट्टारक मठाधीश होते थे दिया। इस प्रकार इनके शिथिलाचार पोषण को कोई भी रोक नहीं और उनके पास विपुल धन राशि एकत्र रहती थी। इनमें से कुछ | सका, क्योंकि इनके पास बादशाहों की सनदें तथा पट्टे परवाने सच्चे साहित्य साधक भी हुए हैं, पर अधिकता उन्हीं की रही | थे। मंत्र और तंत्र शक्ति के साथ राजशक्ति का बल था। किसकी जिन्होंने जनता को चमत्कृत करने के लिए अपने धर्म और साहित्य | ताकत थी जो उनके सामने बोलता। प्रचार बढ़ता ही गया और जैन को विकृत किया। इनमें से कुछ भट्टारक ऐसे भी हैं जो ब्राहमण | धर्म तथा इसका मुख्य निवृत्ति मार्ग का उद्देश्य रसातल में पहुँचता से जैन हुए हैं। इनमें अपनी प्रतिभा तो नगण्य थी, किंतु अपनी | ही गया। कुछ काल बाद इस शिथिलाचार को दूर करने हेतु और यशोगाथा फैलाने की भावना सर्वाधिक वर्तमान थी। वे कवि न | इन बुराइयों को रोकने के लिए तेरह पंथ दल निकला।' होने पर भी कवि बनना आवश्यक समझते थे और अपनी इस पृष्ठ ७३ आगे भट्टारक लोगों ने अपने को दिगम्बर जैन प्रवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए वे विभिन्न ग्रन्थों से कुछ अंश | सम्प्रदाय का महाव्रती बतलाकर कितना परिग्रह आदि का आडम्बर चुराकर भानुमति का कुनवा तैयार कर देते थे। वे अपनी इस स्तेय | किया उसका कुछ उल्लेख करते हैं। कला में इतने प्रवीण होते थे कि बड़े-बड़े दिग्गज भी उनकी इस पृष्ठ ७४ 'इस प्रकार अनेक शास्त्र विरूद्ध आचरणों से चोरी को पकड़ नहीं पाते थे। अपने इस कर्म को छिपाने के लिए | बहुत से लोग दुःखी हो गए और जब उनको उन्होंने भंडारों में से इनका सिद्ध गुटका यह था कि वे वैदिक वाङमय से इन अंशो को आगम लाकर दिखाए और इन्होंने कहा कि आप लोग जो करते ग्रहण करते थे। उन दिनों बहुत कम विद्वान ऐसे होते थे जो वैदिक | हो वह आगम के प्रतिकूल है, तब भट्टारकों ने ऐसे वाङमय का अध्ययन कर उन चोरी किए गए अंशों को पकड़ | निकलवा दिए जो कि उनके प्रतिकूल पड़ते थे। और जो इनके सकें। इस कारण इनकी चोरी ही मौलिकता बन गई थी।' अनुकूल पड़े ऐसे पद्य बनाकर ग्रन्थों में रख दिए या रखवा दिए।'
हजारों वर्षों के इतिहास में पं. जुगल किशोर मुख्तार ही पृष्ठ ७४ 'पंचामृताभिषेक, केसर का लेप, सचित्त पुष्प ऐसे प्रथम व्यक्ति हुए जिन्होंने इन भट्टारकों की इस चोरी को | भगवान पर चढ़ाना आदि अनेक शास्त्र विरूद्ध प्रवृत्ति करने वाले पकड़ा और उसे परीक्षार्थ जैन समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। इस स्वयं कपड़े धारण कर समाज की आंखों में धूल डालने वाले, कार्य में उन्हें अथक परिश्रम करना पड़ा और ग्रन्थ परीक्षा के नाम | रईसी ठाठ रखकर मुनि की तरह गृहस्थों से नमोऽस्तु कहलाने से अपनी इस शोध खोज को प्रकाशित कराया।
वाले भट्टारकों को भ्रम एवं धोखा देने के लिए अपने को मूल पृष्ठ १६ 'ग्रंथ परीक्षा' के बारे में श्री पं. नाथूराम जी प्रेमी | संघ आम्नाय का बताना तथा मूल संघ की आम्नाय के उभट
-जनवरी 2003 जिनभाषित 23
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