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इसमें कोई भी औषधि या प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं रहती।। जरूरतमन्द को दे दीजिये अथवा अनेक संस्थायें हैं जो कि ऐसे गर्भ निरोध की औषधियाँ सेवन करना भी सांघातिक हानिकारक | शिशु को संरक्षण करने के लिए ले लेती हैं एवं निःसन्तान वालों है। शल्यक्रिया के द्वारा सन्तानोत्पत्ति की शक्ति को समाप्त कर | को गोद भी देती हैं। मासूम शिशु को गर्भ में ही हत्याकर के व्यर्थ देना भी तो अपने आपको बंद्धया बनाना ही है तो फिर अगला भव | का निकाचित महापाप का तीव्र अनुभाग वाला अत्यनत अशुभ भी तो वैसा ही प्राप्त होगा। कालान्तर में इसके फलस्वरूप इसी | पाप का बंध करना कतई उचित नहीं। इसमें सूतक का विधान हो जीवन में अनेक नई-नई आधि-व्याधि भी आ जाती हैं । शरीर की | या स्वयं अपने आपको दंड प्रायश्चित देकर शुद्ध करना चाहिये। स्वाभाविक गतिविधि पर कुठाराघात ठीक नहीं ।
भविष्य में कभी भी इस कार्य के करने, कराने, अनुमोदना का अनचाही सन्तान आती है तो आने दीजिये। उसे किसी । त्याग का नियम लेना चाहिये।
प्रवचन
( मुनि श्री अजितसागर जी एवं ऐलक निर्भयसागर जी के प्रवचनांश )
कुण्डलपुर (दमोह), मुनि श्री अजितसागर जी ने कहा कि 'जीवन की घंटी कब बज जाये, यह पता नहीं चलता। उस घंटी को सुनने के लिये हमेशा सचेत रहना चाहिये। साधना करो पर आत्मोपल्धि की। जगत और काय के स्वामी को जानो। शब्द को पढ़ो परंतु जगत की पुस्तक पढ़ो। संसार कुंए में की गई ध्वनि के समान है। जैसी आवाज करोगे वैसी ही प्रतिध्वनि आप को सुनने मिलेगी। आदमी जैसा करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। संसारी आत्मा ही परमात्मा बनती है पर आत्मा बनने के लिये परोपकार करना होता है। जैसे कुत्ता काँच के महल में घुसकर भौंकता है तो भौंकते हुए कुत्तों से घिर जाता है और यदि पूंछ हिलाकर बैठ जाता है तो चारों ओर से शांत वातावरण हो जाता है। वैसी ही स्थिति संस आदमी की भी है। आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ हैं इनका ज्वर चढ़ जाने से कष्ट भोग रहा है। साधु के पास चार संज्ञाएँ नहीं होती, वे तप को बढ़ाने आहार करते हैं। पेट को एक गढ्ढा मानकर भरते हैं, स्वाद के लिये भोजन नहीं करते। दिशा बदलो तो दशा बदल जायेगी। संसार की ओर नहीं परमात्मा की ओर दिशा बना करके चलो। अपनी छाया पकड़ में नहीं आती यदि सूरज की ओर मुख करके चलोगे तो वह छाया आपके पीछे चली आती है।' कुण्डलपुर में मुनि श्री निर्णयसागर जी, मुनि श्री अजितसागर जी एवं ऐलक श्री निर्भयसागर जी एक माह से विराजमान हैं। प्रत्येक रविवार को
न होते हैं। नए वर्ष की प्रात:कालीन शुभ बेला में मस्तकाभिषेक होना है। ऐलक श्री निर्भयसागर जी महाराज ने कहा- 'मुस्कान से मुख खिलता है। सद व्यवहार से सम्मान मिलता है। अध्ययन करने से ज्ञान मिलता है। परिग्रह त्याग कर ध्यान से मोक्ष मिलता है। मोक्ष पुरुषार्थी भक्ति करता है। भक्ति सम्यक् प्रकार से की जाती है। भक्ति मन, वचन, काय में सरलता, विनय और सत्यता से सहित होकर की जाती है। विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से जब मोक्ष मिल सकता है तब संसार की वस्तु क्यों नहीं मिल सकती है।'
ऐलक श्री निर्भय सागर जी ने कहा 'भोगों को भोग कर शरीर नष्ट कर रहा है। योग में नहीं लगा रहा है। भोग से अशांति और योग से शांति मिलती है। तृष्णा से ताप मिलता है, इसलिये तृष्णा को कम करना चाहिये। तृष्णा की खाई कभी भरती नहीं है। तृष्णा एक नागिन है जो हमेशा डंक मारकर आदमी को वेहोश कर रही है। शरीर जीर्ण हो गया पर तृष्णा जीर्ण नहीं हो रही हो, तो कुछ नहीं समझा, जीवन व्यर्थ है। तपों को तपने से मानव की आत्मा शुद्ध होती है। तप में थोड़ा ताप यानि कष्ट होता है परंतु अनंतकाल के लिये कष्ट नष्ट हो जाता है। आदमी तपों को नहीं तप रहा है स्वयं ताप में जल कर राख हो रहा है। यही अज्ञानता है। काल के गाल में समा रहा है। आदमी काल को टी.वी. की शरण लेकर काट रहा है। काल कटता नहीं काल का सदुपयोग करना सीखना चाहिये। काल का सदुपयोग दान सेवा भक्ति ध्यान परोपकार ज्ञानोपार्जन आदि करने से होता है। सच्चा विवेकी आदमी सेवा दान भक्ति के लिये ऐसा भागता है जैसे फोन की घंटी सुनकर एक आदमी भागता है। विद्यार्थी अपनी क्लास से भागता है। यात्री स्टेशन पर घंटी सुनकर तैयार हो जाता है, ट्रेन में चढ़ने के लिये। बड़े बाबा का अभिषेक एक जनवरी को होना है। अत: अभिषेक की घंटी सुनकर आप सब को आना होगा। सच्चे भक्त तभी कहे जाओगे जब फोन की घंटी के समान भक्ति की घंटी सुनकर आओ।'
- जनवरी 2003 जिनभाषित 13
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