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________________ प्रक्षाल और अभिषेक स्व. डॉ. लालबहादुर जी जैन शास्त्री दि. जैन समाज में प्रक्षाल और अभिषेक ये दोनों प्रथाएँ । की प्रतिमा का भी अभिषेक नहीं होना चाहिए इस दलील को यदि सदा से चली आ रही हैं। अष्ट द्रव्य से पूजा जिस प्रकार अत्यधिक | ठीक मान लिया जाय तब तो हम अरिहंत की प्रतिमा को रथ में भी प्राचीन है उसी प्रकार प्रक्षाल और अभिषेक भी अत्यधिक प्राचीन | नहीं बैठा सकते, क्योंकि अरिहंत तो कभी रथ में बैठते नहीं हैं। है। यदि प्रक्षाल और अभिषेक को विकृति कहा जायगा तो अष्ट | प्रतिमा को हम गोदी में लेकर भी स्थान से स्थानान्तर नहीं कर द्रव्य से पूजा भी विकृति का ही एक रूप कहा जायगा। लोग अभी | सकते, क्योंकि अरिहंत भगवान् कभी किसी की गोदी में नहीं तक यह भी नहीं समझते कि प्रक्षाल और पूजा में क्या अन्तर है। | बैठते। इसी तरह प्रतिमा का विमान में विराजमान कर निकालना कुछ लोग तो यहाँ तक भी कहने की हिमाकत करते हैं कि प्रक्षाल | भी उचित नहीं माना जा सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि का आत्म शुद्धि की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है इसका मतलब तो | साक्षात् अरिहंत के प्रति जो व्यवहार भक्त का होता है वही व्यवहार यह हुआ कि प्रक्षाल की तरह अभिषेक और पूजा का भी आत्म अरिहंत की प्रतिमा के साथ होना चाहिए, कम अधिक नहीं, यह शुद्धि की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। यह कहना कि प्रक्षाल तो | गलत है। यह ठीक है कि वीतराग अरिहंत की प्रतिमा भी वीतराग मूर्ति पर जो रजकण लग जाते हैं उन्हें साफ करने के लिए किया | | है, फिर भी साक्षात् अरहंत की पूजा-विधि और अरहंत प्रतिमा जाता है यह सर्वथा कपोल कल्पित है। यहाँ हम प्रक्षाल और | की पूजा-विधि एक सी नहीं होती। साक्षात् अरहंत का स्पर्श करने अभिषेक की अन्तर्दृष्टि को समझायेंगे। के लिए स्नान की आवश्यकता गृहस्थ को नहीं होती, जबकि अभिषेक- मूर्ति के ऊपर कलशों के द्वारा शिर पर जो अरिहंत की प्रतिमा बिना स्नान किये स्पर्श नहीं कर सकता। उदाहरण जलधारा छोड़ी जाती है वह अभिषेक कहलाता है। के लिए किसी साक्षात् मुनि का जो साधु परमेष्ठी का रूप है हम प्रक्षाल- मात्र चरणों पर जो जलधारा छोड़ी जाती है वह बिना स्नान के स्पर्श करते हैं, किन्तु साधु परमेष्ठी की प्रतिमा का प्रक्षाल कहलाता है। अभिषेक की प्रक्रिया जो विधि-विधानपूर्वक | हम स्नान किये बिना स्पर्श नहीं कर सकते। होती है उसमें पर्याप्त समय लगता है, क्योंकि वहाँ क्षेत्रपाल, जैनागम में जो नव देवों की मान्यता है उनमें अरहंत देवता दिग्पाल आदि का आह्वानन किया जाता है, चारों दिशाओं में चार | अलग हैं और अरहंत प्रतिमा देवता अलग हैं। यदि हम दोनों एक कलश स्थापित किये जाते हैं, उपयोगी मंत्र आदि का उच्चारण | ही मानकर चलें तो देव शास्त्र गुरु की पूजा में जब देव की पूजा करना पड़ता है। अतः अभिषेक समय साध्य और श्रम साध्य होता हम कर चुकते हैं तब फिर चैत्य (प्रतिमा) पूजा क्यों करते हैं ? है। लेकिन जिस भक्त के पास उतना समय नहीं होता और न | इससे स्पष्ट है कि अरहंत और अरहंत की प्रतिमा भिन्न-भिन्न भी मंत्रोच्चारण की उस प्रकार की योग्यता या शक्ति है वह चरणों पर | हैं। आगम में नव देवताओं के नाम इस प्रकार गिनाये हैं अरहंत १, जलधारा देकर ही अर्थात् प्रक्षाल करके ही अपनी सन्तुष्टि करता | सिद्ध २, आचार्य ३, उपाध्याय ४, साधु ५, जिन शास्त्र ६, जिनधर्म है। क्षालन का सामान्य अर्थ होता है धोना और अभिषेक का | ७, जिन चैत्य ८, जिन चैत्यालय ९ । नित्य पूजा में हम प्रतिदिन इन सामान्य अर्थ होता है स्नान। चरणों के धोने को स्नान नहीं कहा | नव देवताओं की पूजा करते हैं । यद्यपि देव शास्त्र गुरु में शेष छहों जाता अत: उसे प्रक्षाल ही कहा जाता है और स्नान को 'धोना' | देवता गर्भित हो जाते हैं, फिर भी उनकी पृथक्-पृथक् पूजा की नहीं कहा जाता अतः उसे अभिषेक ही कहा जाता है। राजगद्दी पर | जाती है। अरहंत की पूजा में हम द्रव्य अर्पण करते हैं सिद्ध पूजा बैठते समय राजा को भी जो स्नान कराया जाता है वह राज्याभिषेक | में द्रव्य अर्पण हो तो बुराई नहीं, किन्तु बिना द्रव्य के भावाष्टक भी ही कहलाता है न कि राज्य प्रक्षालन । यह बात दूसरी है कि कुछ | चलता है जैसा कि हम आधुनिक पूजाओं में पढ़ते हैं। शास्त्र की लोग नासमझी के कारण अभिषेक को प्रक्षाल या प्रक्षाल को | पूजा में द्रव्य के साथ-साथ वस्त्र भी हम अर्पण करते हैं। चैत्य अभिषेक कहें। यहाँ न रजकण पोंछने का कोई प्रश्न ही है और न | पूजा में हम अभिषेक करते हैं, प्रक्षाल भी करते हैं। साक्षात् रजकणों के पोंछने का आगम में कोई उल्लेख है। अरिहंत की पूजा में हम न अभिषेक करते हैं न प्रक्षाल करते हैं। शंका- हम मानते हैं कि सिर पर कलश द्वारा जलधारा | इस प्रकार सभी देवाताओं की पूजा में कुछ न कुछ अन्तर है। देते हैं, अभिषेक होता है। लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि यदि प्रक्षाल या अभिषेक आत्म शुद्धि में कारण नहीं है जिन अरहंत भगवान् की यह प्रतिमा है वे अरहंत भगवान् तो कभी | तब हम पूछना चाहेंगे कि पूजा भी फिर क्यों की जाती है वह भी स्नान नहीं करते थे, फिर अरहंत भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक | आत्म शुद्धि में कारण नहीं है । यदि पूजा वन्दना स्तुति से हमें कोई क्यों किया जाता है ? मुनि के २८ मूलगुणों में ही स्नान का निषेध प्रेरणा मिलती है तो अभिषेक से भी हमें प्रेरणा मिलती है। तीर्थङ्कर है, फिर अरहंत तो बहुत बड़ी चीज है। अत: प्रतिमा के अभिषेक | के अरिहंत हो जाने के बाद देव लोग क्यों छत्र चमर आदि का से उसकी वीतरागता खंडित होती है। भगवान् के लिए प्रयोग करते हैं, क्यों ६४ चमर ढोरते हैं क्या समाधान-अरिहंत का अभिषेक नहीं होता। अतः अरिहंत | उससे आत्म शुद्धि की प्रेरणा मिलती है ? तो भक्त को भी अरिहंत 10 जनवरी 2003 जिनभाषित For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.524281
Book TitleJinabhashita 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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