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नमोऽस्तु
वसुधैव कुटुम्बकम्
नम्बर दो
सरोज कुमार
नम्बर दो की कमाई से
मंदिर नहीं बनना चाहिए, मेरे ये विचार सुन चौधरी उत्तेजित हो गया।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
'वसुधैव कुटुम्बकम्' इस व्यक्तित्व का दर्शन
स्वाद-महसूस
इन आँखों को
बोला, भाई साहब नम्बर दो का पैसा कमाना सरल काम नहीं है सारी आँखों से बचाकर सारे कानूनों से छिपाकर गुपचुप में, चुपचुप में करिश्में से कमा पाता है कोई नम्बर दो।
सुलभ नहीं रहा अब ....!
यदि वह सुलभ भी है
तो भारत में नहीं,
महा-भारत में देखो!
भारत में दर्शन स्वारथ का होता है।
फिर वह मेरी और हिकारत से कुछ इस तरह देखता रहा मानो कह रहा होये दो कौडी का मास्टर
हाँ-हाँ!
इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है
कि
क्या खाक समझेगा, क्या होता है नम्बर दो।
"वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानि धन-द्रव्य
फिर बोलाआप तो माट्साब, बस उत्तर पुस्तिकाओं में नम्बर दो..... ।
धन ही कुटुम्ब बन गया है
धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।
'मनोरम' 37, पत्रकार कालोनी, इन्दौर (म.प्र.)-452001
'मूकमाटी' महाकाव्य से साभार
-मई 2002 जिनभाषित
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