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________________ जिज्ञासु श्री एस. एल. जैन, भोपाल : जिज्ञासा - जो जीव सम्यग्दर्शन होने से पूर्व नरक का बंध कर लेते हैं, सम्यक्दर्शन होने पर वे प्रथम नरक तक ही उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार तिर्यंच और मनुष्य पर्यायों का बंध होने पर वे भोग भूमियों में ही उत्पन्न होते हैं। यह व्यवस्था मात्र क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाले जीवों के लिए है। कृपया स्पष्ट करें कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीवों के लिए आगम में क्या व्यवस्था बताई गई है ? जिज्ञासा समाधान समाधान- सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है। 1. उपशम, 2. क्षायोपशमिक 3. क्षायिक इनमें से उपशम सम्यकत्व में तो मरण होता ही नहीं क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि मरण से पूर्व आयु नहीं बाँध चुके हैं तो नियम से देव पर्याय ही प्राप्त करते हैं । यदि बद्धायुष्क हों तो पहले नरक तक तिर्यंचों में भोग भूमिया पर्याय को और मनुष्यों में भी भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि बद्धायुष्क तिथंच या मनुष्य है और उसको देव आयु के अलावा अन्य आयु का बंध हो गया है तो मरण समय उसका सम्यक्त्व छूट जाता है और वह बाँधी हुई आयु के अनुसार गति प्राप्त करता है । परन्तु यदि क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारंभ करके कृतकृत्य वेदी हो गया हो और कृतकृत्यवेदी अवस्था में ही उसका मरण हो जाये तो वह क्षायिक सम्यकदृष्टि की तरह पहले नरक तक अथवा तिर्यंच और मनुष्यों में भोगभूमिज बनता है । देवा बँधी होने पर तो दोनों सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व सहित देवगति को प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि तियंच और मनुष्य पर्यायों का मरण पूर्व बंध होने पर जिस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार कृतकृत्यवेदी क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव भी पैदा होते हैं। सामान्य क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव के लिये यह नियम नहीं है। सभी क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि नारकी, देव और मनुष्य ही बनते हैं। समाधान उत्तम एवं मध्यम अन्तरआत्मा की परिभाषा 195, 196, जिज्ञासा क्या तीर्थंकर नामकर्म का बंध होने के लिए विभिन्न शास्त्रों में इस प्रकार कही है - कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथाकेवली या श्रुतकेवली का सान्निध्य अनिवार्य है ? और यदि अनिवार्य नहीं है तो क्या पंचमकाल में भी जीवों के इतनी विशुद्धि संभव है ? कृपया स्पष्ट करने का कष्ट करें। समाधान तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिये केवली अथवा श्रुतकेवली का पादमूल आवश्यक होता है, जैसा कि श्री कर्मकाण्ड गाथा-93 में कहा है-' तित्थयर बंध पारंभयाणरा केवलि दुगन्ते' अर्थ तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ मनुष्य ही, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं। भावार्थकेवलिद्वय के पादमूल का नियम इसलिये है कि अन्यत्र उस प्रकार की परिणाम विशुद्धि नहीं हो सकती, जिसमें तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारंभ हो सके। Jain Education International - पं. रतनलाल बैनाड़ा उपर्युक्त केवलिद्वय के पादमूल का नियम केवल उपर्युक्त श्री कर्मकाण्ड की गाथा के अलावा अन्य सिद्धान्त ग्रन्थ श्री कषाय पाहुड अथवा श्री षटखण्डागम या आ. कुन्द कुन्द रचित शास्त्रों में और उनकी टीकाओं में प्राप्त नहीं होता है। इसी वजह से वर्तमान के कुछ आचार्यगण एवं विद्वत्गण इस नियम को आवश्यक नही मानते । इस सम्बन्ध में यदि कोई अन्य प्रमाण हो तो स्वागत योग्य है। जहाँ तक पंचमकाल में तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रसंग है, भगवान् महावीर के निर्वाण के 12 वर्ष में श्री गौतम गणधर, अगले 12 वर्ष में श्री सुधर्माचार्य और अगले 38 वर्षों में श्री जम्बूस्वामी केवली हुए। इसके उपरान्त विष्णु नन्दि, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु महाराज अगले 100 वर्षों में हुए, जे श्रुतकेवली थे, क्योंकि केवली और श्रुतकेवली के पादमूल मे तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव है। अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु महाराज के समय तक तो (अर्थात् भगवान् महावीर के निर्माण गमन के बाद) तीर्थंकर प्रकृति का बंध उपर्युक्त श्री कर्मकाण्ड के प्रमाणानुसार पंचमकाल में भी संभव था। वर्तमान में संभव नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त कथनानुसार केवलिद्वय के पादमूल बिना तीर्थकर प्रकृति के बंधयोग्य विशुद्धि संभव नहीं अन्य विचारधारा के अनुसार कथंचित संभव है। जिज्ञासा - छहढाला के विभिन्न संस्करणों में अन्तरात्मा के भेद बताने के लिये 'देशव्रती अनगारी' और 'देशव्रती अगारी' दो पाठ पाये जाते हैं । यदि अनगारी पाठ ठीक है, तब छठें गुणस्थान महाव्रती प्रमत्त संयत मुनि महाराज मध्यम अन्तरात्मा कहलावेंगे। सकल संयम को धारण करने वाले सभी मुनि महाराज छठें - सातवें गुणस्थान में प्रमत्त और अप्रमत्त अवस्था में अल्पतम अन्तर्मुहूर्त तक तो स्थित रहते ही हैं। ऐसी स्थिति में क्या महाव्रत मुनि महाराज को मध्यम और उत्तम अन्तरात्मा की श्रेणी में मानना उचित है, स्पष्ट करने की कृपा करें। पंचमहव्वय-जुत्ता धम्मे मुळे वि संहिदा णिच्छं । णिज्जिय सयल पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होति ॥ सावयगुणेहिं जुत्ता घमत्त-विरदा य मज्झिमा होति । जिणहवणे अणुरता उवसमसीला महासत्ता ॥ अर्थ - जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में सदा स्थित रहते हैं तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं, वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं ||195 || श्रावक के व्रतों को पालने वाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशम स्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ||196 ॥ For Private & Personal Use Only -अप्रैल 2002 जिनभाषित 27 www.jainelibrary.org
SR No.524261
Book TitleJinabhashita 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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