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विशेष समाचार
आर्यिका विशुद्धमति जी की समाधिअंतिम झाँकी
साधना
विदुषी आर्यिका पूज्य विशुद्धमति माताजी ने 14 अगस्त 1964 को मोक्ष सप्तमी के दिन परम पूज्य आचार्य श्री शिवसागरजी से आर्यिका दीक्षा प्राप्त की थी। फिर पच्चीस वर्ष की सतत तपस्या के माध्यम से उन्होंने अपनी साधना का भव्य भवन बनाया। उसके उपरान्त बारह वर्ष की सल्लेखना लेकर कठोर साधना करते हुए उन्होंने अपने उस पुण्य भवन पर उत्तुंग शिखर का निर्माण किया जो अपने आप में एक अनोखा उदाहरण था। इन बारह वर्षों में क्रमश: एक-एक वस्तु त्यागते हुए सन् 1998 के चातुर्मास से एक दिन के अंतर से और सन् 2000 के चातुर्मास से दो दिन के अंतर से आहार लेकर उन्होंने उत्कृष्ट समाधि-साधना का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया। अंत में केवल जल ही उनकी इस पर्याय का आधार था जिसे 16 जनवरी 2002 को जीवन पर्यन्त के लिये त्याग दिया और अंतिम छह दिवस माताजी ने निर्जल व्यतीत किये।
माताजी की समाधि - साधना में सहयोग देने के लिये पूज्य आचार्य श्री वर्द्धमानसागरजी ने यह चातुर्मास धरियावद में ही स्थापित किया था। अंत में तो पूरा संघ उसी साधना स्थली नंदनवन में पधार गया था। परमपूज्य आचार्य वीरसागरजी की वरिष्ठ शिष्या आर्यिकारत्न सुपार्श्वमति माताजी चार सप्ताह में साढ़े चार सौ किलोमीटर की यात्रा करके सीकर से नंदनवन आ गई थीं। अन्य संघों से मुनि श्री हेमंतसागरजी, वैराग्यसागर जी तथा आचार्य अभिनंदनसागरजी के संघ के कुछ सदस्यों का इस अवसर पर नंदनवन में पदार्पण हुआ।
समाधिकाल में माताजी निरंतर सावधान रहीं और प्रायः मंगल पाठ सुनने में दत्त - चित्त रहीं। पूज्य आचार्य वर्द्धमानसागरजी ने जल त्याग कराकर माताजी को अंतिम औत्तमार्थिक प्रतिक्रमण सुनाया। उनके साथ मुनि श्री पुण्यसागरजी लगातार माताजी को स्तोत्र पाठ आदि सुनाते रहते थे। विशुद्धमतिजी की प्रिय शिष्या आर्यिका प्रशान्तमति माताजी अनेक वर्षों से छाया की तरह उनकी सेवा में संलग्न थीं। अंतिम काल में सुपार्श्वमति माताजी का सम्बोधन और शीतलमती तथा वर्धितमती माताजी सहित अन्य आर्यिकाओं द्वारा तथा संघ के ब्रह्मचारी भाई बहिनों द्वारा दिन-रात संलग्न रहकर की गई वैयावृत्ति भी अनुकरणीय और सराहनीय थी।
कुल मिलाकर विशुद्धमति माताजी की द्वादशवर्षीय सल्लेखना और अंत में जल त्याग के बाद छह दिन की कठोर साधना अत्यंत प्रभावक और प्रेरणादायक रही। प्रतिदिन चार-पाँच हजार जैन- अजैन जनता उनके दर्शनार्थ आती रही। 73 वर्ष की आयु में, 37 वर्ष का निर्दोष संयमी जीवन बिताकर आर्यिका माताजी ने 22 जनवरी को प्रातः काल साढ़े चार बजे देह त्याग किया। उसी दिन पूर्वाह्ण में लगभग दस हजार लोगों के जयकारे के बीच चन्दन- कपूर और हजारों नारियलों से सज्जित चिता पर विराजमान करके महासभा अध्यक्ष
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श्री निर्मलकुमार सेठी के साथ माताजी की पूर्व अवस्था के दोनों भ्राताओं श्री नीरज जैन और निर्मल जैन तथा नन्दनवन के स्वप्नशिल्पी प्रतिष्ठाचार्य पं. हसमुखजी ने उनका नश्वर शरीर अग्नि को समर्पित कर दिया।
आचार्य वर्द्धमानसागरजी के संघ में इस चातुर्मास में चार समाधि मरण हुए हैं। वयोवृद्ध आर्यिका विपुलमति माताजी ने 12 दिसम्बर को देह त्याग किया। आर्यिका पार्श्वमति माताजी 28 दिसम्बर को स्वर्ग सिधारों और 21 जनवरी की रात्रि में इसी संघ के मुनि पूज्य श्री चारित्रसागरजी ने सनावद में समाधि-मरण प्राप्त किया। पूज्य विशुद्धमति माताजी ने 22 जनवरी को प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में अपनी पर्याय का पर्यवसान किया।
निर्मल जैन
श्रद्धांजलि
सांगानेर
पूज्य 105 आर्यिका विशुद्धमति माताजी के 22 जनवरी 2002 को सल्लेखनापूर्वक देहोत्सर्ग करने के उपलक्ष्य में श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर में एक शोकसभा का आयोजन किया गया। सभा का शुभारम्भ भैया अजेश जी ने मंगलाचरण के द्वारा किया। पूज्य माताजी के प्रारम्भिक जीवनपरिचय को बताते हुए ब्र. महेश भैया जी ने कहा कि 12 अप्रैल 1926 को जन्मी सुमित्रा बाई ने अपने आदर्श जीवन के द्वारा न केवल रीठी, सतना और सागर में अपनी विद्वत्ता के माध्यम से छाप छोड़ी, अपितु सर्वोत्कृष्ट आर्यिका के रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपना नाम रोशन किया। सल्लेखना के अवसर पर नंदनवन में साक्षात् समाधि का दृश्य देखने वाले संस्थान के संस्कृत अध्यापक युवा विद्वान पं. राकेश जी 'शास्त्री' ने अपने संस्मरण सुनाते हुए कहा कि पूज्य माताजी ने समतापूर्वक समाधि कर अपनी 12 वर्ष की तपस्या को सफल बनाया। 25 वर्षीय महाव्रती जीवन जीकर उन्होंने सल्लेखनामंदिर की नींव भरी तथा 12 वर्षीय सल्लेखना की अवधि में उन्होंने सल्लेखनामंदिर का निर्माण किया तथा 16 जनवरी 2002 को चारों प्रकार के आहार का त्याग कर उस मंदिर पर कलशारोहण किया तथा 22 जनवरी 2002 को ब्रह्म मुहूर्त में 4.30 बजे निर्यापक आचार्य वर्द्धमानसागर जी एवं आर्यिका गणनी 105 श्री सुपार्श्वमति माताजी के सत् संबोधनों के द्वारा ओम् का उच्चारण करते हुए समाधिपूर्वक मरण करके ध्वजारोहण किया पूज्य माताजी का वियोग सम्पूर्ण जैन समाज के लिये एक अपूरणीय क्षति है। सभा के अन्त में 5 मिनट का मौन धारण कर सभी छात्रों ने पूज्य माताजी के प्रति सद्भावना भाते हुए श्रद्धांजलि अर्पित की।
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भरत कुमार बाहुबलि कुमार 'शास्त्री' श्री दि. जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर फरवरी 2002 जिनभाषित
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