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________________ आत्मा से परमात्मा तक पहुँचानेवाले अच्छे संस्कार छपारा (म.प्र.), 17 जनवरी 2002, गर्भकल्याणक के दिन दिया गया प्रवचन आचार्य श्री विद्यासागर इस जीवात्मा के लिये आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने के लिये | हैं। ऐसे कौन से संस्कार हैं जो इसप्रकार का चमत्कार गर्भकाल से आधारशिला की आवश्यकता है। इन पाँच दिनों के माध्यम से आत्मा | ही प्रारंभ हो जाता है। 6 माह पहले से रत्नों की वर्षा होने लगती से परमात्मा बनने की आधार शिला को ही दर्शाया जायेगा। संसार | है। एक उदाहरण है, जैसे रोटी बनाते हैं उसको गोल बनाना है, उस के नाश की प्रक्रिया को दर्शाने वाला यह पंचकल्याणक महोत्सव है। | | लोई को आटे में लगाकर बेलन चलाते हैं जिससे वह गोल बन जाती सिंहनी का दूध सुनते हैं सामान्य पात्र में नहीं अपितु स्वर्ण पात्र में है। आटा इसलिये लगाते हैं, जिससे वह लोई चिपके न। वैसे ही ही रहता है। लोहे के पात्र में यदि उसे रख दिया जाये, तो उसमें छिद्र- | तीर्थंकर का जीवन ऐसा होता है कि उसमें कहीं कोण नहीं होता है, छिद्र हो जाते हैं। वैसे ही यहाँ पर तीन लोक के नाथ का आगमन | वर्तुल की तरह होता है। उन्होंने अपने पूर्व जीवन में ऐसे संस्कार डाले आज के दिन हुआ है। वह कौन सा पात्र है जो तीन लोक में तहलका | होंगे, जिससे कोई रुकावट नहीं आती है। अब सोचना है, ऐसे वे मचाने वाली तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता को लेकर आने वाले जीव के | कौन से संस्कार हैं? उनके इतिहास को पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि माता पिता बनेंगे। जो इस प्रकार के गर्भ में आने वाले जीव को जन्म | सोलह कारण भावनाओं को उन्होंने पूर्व जीवन में भाया था। ऐसा महान देंगे, वे महान पुण्यशाली हैं। वह माता स्वर्ण पात्र की तरह होती है | पुण्यशाली जीव ही उस तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है और तीर्थंकर जो इस प्रकार के जीव को जन्म देती है। के रूप में इस धरती पर जनम लेकर तीर्थ का निर्माता होता है। आज तीर्थकर प्रकृति एक ऐसी प्रकृति है, जैसे दीपक की ज्योति होती हम अपनी आत्मा के ऊपर ऐसे संस्कार डालें, जिससे हमारे आगेहै, वह स्वयं प्रकाशित होती है और दूसरों को भी प्रकाश प्रदान करती आगे प्रकाश फैलता जाये, हम अज्ञान के अँधेरे से बचकर ज्ञान के है। तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता लेकर आने वाला व्यक्ति मिट्टी के दीपक प्रकाश को पायें। यह भारत भूमि ही ऐसी है जहाँ पर संस्कार की बात की तरह नहीं, रत्न दीप की तरह होता है, जिसका तल भी प्रकाशी | नहीं होती है अपितु आत्मा से परमात्मा बनने की बात होती है। आप होता है। वैसे तीर्थंकर का जीवन सम्पूर्ण रूप से प्रकाशमान होकर | लोगों को संस्कार की बात समझनी होगी, क्योंकि यही संस्कार संतान सबको प्रकाशित करने वाला होता है। कर्मभूमि में वासना की नहीं, | पर पड़ने वाले हैं, जिसके माध्यम से अपने भविष्य का निर्माण करते कर्म की उपासना होती है। भोगभूमि में ही वासना होती है, वहाँ पर | हैं। आपके खानपान का प्रभाव भी आपके बच्चों पर पड़ता है। सुना कर्म नहीं होता है। वैसे विवाह, वासना की पूर्ति के लिये नहीं होता | है आजकल आप लोगों को घर का भोजन अच्छा नहीं लगता, होटल है, यह तो भारतीय संस्कृति है, यहाँ पर विवाह एक आचार संहिता | का भोजन अच्छा लगता है, होटल की बासी रोटी अच्छी लगती है, के अन्तर्गत होता है। इसिलये चार पुरुषार्थों में से काम भी एक पुरुषार्थ | उसको अच्छे से फ्राई करके दे देते हैं, वह अच्छी लगती है। यही है। काम पुरुषार्थ इसलिये होता है कि कुल की परम्परा चले। संतान | संस्कार बच्चों में पड़ते जा रहे हैं। सुनने में तो आया है कि कुछ बच्चे की प्राप्ति के लिये विवाह होता है। कुछ राष्ट्रों में संतानों को बढ़ाने | तो माता-पिता से भी चार कदम आगे होते हैं, चरित्रवान होते हैं,वे के लिये विवाह होता है, उनका उद्देश्य केवल वोटों की संख्या बढ़ाना रात्रि में भोजन तो क्या पानी भी नहीं पीते, बिना मंदिर जाये भी पानी है। यह भारतीय संस्कृति में नहीं है। नहीं पीते, यह सब क्या है? तो पूर्व संस्कार भी इसमें कारण होते - तीर्थंकर का जन्म होता है तो फिर माता-पिता के लिय दो संतानों | हैं। एक आम के पेड़ में दो आम लगते हैं, एक छोटा दूसरा बड़ा की इच्छा नहीं होती, एक में ही संतोष हो जाता है। और कहते हैं | है, पेड़ एक है पर आम छोटे-बड़े क्यों हुए? दोनों एक से होने चाहिए दोनों की वासना समाप्त हो जाती है और ब्रह्मचर्य को धारण कर लेते | थे? लेकिन नहीं, दोनों में एक से संस्कार नहीं हो सकते हैं, वैसे ही हैं। उनके जीवन में उदासीनता आ जाती है। जैसे सूर्य तो एक ही | हमारी संतान पर संस्कार की बात है। आप लोगों का कर्तव्य है कि होता है, दो-तीन नहीं होते हैं, वैसे ही तीर्थंकर भी एक अकेले होते | संतान को संस्कारवान बनायें, क्योंकि संतान ही कुल की परम्परा को हैं इसके बाद कोई संतान नहीं होती है। यहाँ पर एक प्रश्न है- दो आदि | चलाने वाली होती है। यदि अच्छे संस्कार नहीं हैं, तो परम्परा भी क्यों नहीं होते हैं? उनका एक भाई और होता तो क्या बाधा आती? ठीक चलनेवाली नहीं है। अच्छे भावों के लिये हमें वैसे पात्र को बनाना तो इसमें मेरा सोचना है दो में माता-पिता का लाड़ प्यार बँट जाता जरूरी है, तब ही अच्छी परम्परा का निर्वाह होगा, और अच्छे जीवन है, इसलिए तीर्थकर अकेले ही होते हैं और उनका प्रभाव ही ऐसा | का निर्माण होगा। आत्मा से परमात्मा तक पहुँचाने वाले अच्छे संस्कारों होता है कि उनके माता-पिता को दूसरी संतान की इच्छा नहीं होती | को अपने जीवन में लायें और अपनी संतान को संस्कारवान बनायें। है। एक चितन का विषय है - तीर्थंकर का जीव जैसे ही गर्भ में आता प्रस्तुति : मुनि श्री अजितसागर है तो हजारों की संख्या में देव और देवियाँ उनकी सेवा में लग जाते -फरवरी 2002 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524259
Book TitleJinabhashita 2002 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2002
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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