________________
सम्पादकीय
वैराग्य जगाने के अवसरों का
मनोरंजनीकरण
कबीर ने कहा है, 'माया बड़ी ठगनी हम जानी।' अर्थात् | का इस्तेमाल भी उन्हें मूलगुणों में परिगणित प्रतीत होने लगा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ ठग है। वह इन्द्रिय सुख के साधनों को धर्म | देहसुख की आकांक्षा से ग्रस्त जीवों को माया बुरी तरह ठगती है। के वस्त्र पहनाकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की बुद्धि को भी भ्रमित कर | मन्दिरों में फिल्मी संगीत का प्रवेश देता है। उन्हें विषयवासनाओं की तृप्ति के साधन भी मोक्ष के साधन
वर्तमान में भजनों और पूजाओं की आड़ में फिल्मी संगीतरूपी प्रतीत होने लगते हैं। भगवान् महावीर के निर्वाण के कुछ ही वर्षों
श्रवणोन्द्रिय-सुख की सामग्री धर्मसाधन-सामग्री का बाना धारण कर बाद दिगम्बर मुनियों के एक वर्ग को माया ने इस प्रकार ठगा कि
मंदिरों में प्रवेश कर चुकी है। अब मंदिरों में पूजा-भक्ति फिल्मी संगीत उन्हें संयम का साधनभूत दिगम्बरत्व असंयम का कारण मालूम होने
के साथ ही की जाती है। भजन फिल्मी गीतों की धुनों में ही गाये लगा और असंयम के कारणभूत वस्त्रपात्र संयम के साधन लगने लगे।
जाते हैं, क्योंकि वह हमारे विषयासक्त मन को रंजित करता है। संगीत फलस्वरूप भगवान् महावीर के नाम से सवस्त्र मुक्ति का प्रतिपादन
में अद्भुत शक्ति होती है। वह हमें रुला सकता है, हँसा सकता है, करने वाला एक सम्प्रदाय ही जैनों में चल पड़ा। आगे चलकर एक
हृदय को करुणा से प्लावित कर सकता है, मन में उत्साह भर सकता भट्टारक सम्प्रदाय का भी दिगम्बर जैन परम्परा में उदय हुआ और
है, शान्तरस की धारा प्रवाहित कर सकता है, भक्ति-भाव में डुबा माया से विमोहित अनेक दिगम्बर साधु वस्त्रधारण कर मठों में विशाल
सकता है और कामवासना को उद्दीप्त कर सकता है। यह शक्ति संगीत परिग्रह के साथ राजसी ठाठ-बाट से रहने लगे और केवल पिच्छी
की विशिष्ट राग-रागिनियों में होती है। भक्तिरस में अवगाहन कराने कमण्डलु के बल पर गुरु के सिंहासन पर बैठ गये और मायाविमूढ़
वाले संगीत की राग-रागिनियाँ विशेष प्रकार की होती है। हम देखते श्रावक उन्हें गुरु मानकर पूजने लगे।
हैं कि फिल्मों में कुशल संगीतकार सिचुएशन (दृश्य के स्वरूप) के विषयसुख की अनादि वासना से ग्रस्त जीवों की बुद्धि में अधर्म
अनुसार ही धुन बनाता है तथा वाद्य विशेषों का प्रयोग करता है और में धर्म की भान्ति पैदा कर देना माया का सबसे बड़ा खेल है। मांसादन
गीतकार उसी के अनुसार गीत के बोल लिखता है। जहाँ करुणरस लम्पटियों की बुद्धि में माया ने यह विचार भरा कि देवी-देवता पशुओं
पैदा करना होता है वहाँ संगीतकार प्रायः वायलिन के द्वारा की बलि से प्रसन्न होते हैं, अतः उन्हें पशुओं की बलि दो और प्रसाद
करुणोत्पादक ध्वनि पैदा करता है, जहाँ भक्तिरस का वातावरण रूप में उनके मांस का भक्षण करो। इससे मनोकामनाएँ पूरी होंगी।
निर्मित करना होता है वहाँ सितार, मँजीरे आदि वाद्यों के द्वारा पवित्र, इस प्रकार माया ने पशुबलि और मांसभक्षण में भी धर्म का भ्रम पैदा
सात्विक सुर का सृजन करता है और कोठे पर मुजरे का दृश्य होता कर दिया। कौल सम्प्रदाय के अनुयायी तो माया के चंगुल में फँसकर
है तो कामोत्तेजक धुन और तदनुरूप वाद्यों का प्रयोग करता है। तो मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन, इन पाँच मकारों के सेवन को
मंदिरों में, धार्मिक उत्सवों में, पूजा और भक्ति के प्रसंग में सात्विक ही मोक्षमार्ग मानने लगे। उनके ग्रन्थ कालीतन्त्र में कहा गया है
संगीत का ही प्रयोग होना चाहिए। द्यानतराय, भूधरदास, बुधजन, मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
दौलतराम, भागचन्द्र आदि जैन गीतकारों ने आसावरी, सारंग, एते पञ्च मकाराः सुगुर्मोक्षदा हि युगे युगे।।
बिलावल, मल्हार, भैरवी आदि शास्त्रीय रागों में अपने भक्तिगीत आधुनिक युग के एक भगवान् ने भी काम लम्पटियों को संभोग
निबद्ध किये हैं। उन्हें इन्हीं रागों में गाने से भक्ति और वैराग्य का के द्वारा समाधि के अनुभव का मार्ग दिखलाया है। और उनके उपदेश
मनोवैज्ञानिक वातावरण निर्मित होता है, श्रोताओं के हृदय भक्तिरस का बल पाकर माया ने पौगलिक सुख के लम्पटियों को संभोग में
में डूब जाते हैं, वैराग्य से भर जाते हैं। भी समाधि का भ्रम पैदा कर दिया।
अब ये पुराने भक्तिगीत किसी भी धार्मिक समारोह में सुनने माया कुछ लोगों के मस्तिष्क में घुसकर असंयमी गृहस्थ को
को नहीं मिलते। अब लोकप्रिय, बाजारू फिल्मी धुनों में ढाले गये भी सद्गुरु समझने की बुद्धि पैदा कर देती है और सच्चे दिगम्बर
नये भजन ही कानों में गूंजते हैं। यहाँ तक कि मुनियों और आर्यिकाओं मुनियों को झूठा मुनि मानने के लिये उकसाती है।
की धर्मसभा में मंगलाचरण भी फिल्मी धुनों में ही गाया जाता है। वर्तमान के कुछ निर्ग्रन्थ मुनियों की बुद्धि को भी माया ने इस
फिल्मी धुन चुनते समय यह ध्यान भी नहीं रखा जाता कि वह धुन प्रकार वंचित किया है कि वे सत्ताधारियों को आशीर्वाद देने के लिये
कैसे गीत के साथ जुड़ी हुई है। फिल्मों में नायक-नायिका अश्लील उनके घर जाने को भी मुनिचर्या मानने लगे हैं। टेलीफोन से बात करने |
भाषा और अश्लील मुद्राओं में प्रणय निवेदन करते हुए जो गीत गाते को भी मुनिधर्म में शुमार कर लिया है। पंखे, कूलर और एयरकंडीशनर
2 सितम्बर 2001 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org