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________________ आपके पत्र, धन्यवाद, धन्यवाद, सुझाव शिरोधार्य आपके द्वारा प्रेषित 'जिनभाषित' अंक निरन्तर प्राप्त हो रहे हैं। पत्रिका अपनी गरिमा के अनुरूप अच्छी प्रकाशित हो रही हैं। लेखों का चयन स्तरीय है। आप इसके स्तर को समुन्नत बनाये रखने के लिये निरन्तर सचेष्ट रहते हैं। दिगम्बर जैन समाज में स्तरीय पत्रिकाएँ इनी - गिनी ही हैं, इनमें मैं आपकी पत्रिका की भी गणना करता हूँ। पत्रिका अधिकाधिक लोगों तक पहुँचे, ऐसी मेरी शुभकामनाएँ हैं। पक्षमी तथा आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागर जी महाराज पर आपने अच्छी सामग्री दी है। डॉ. रमेश चन्द्र जैन अध्यक्ष- अ. भा. दि. जैन विद्वत्परिषद्, जैन मंदिर के पास, बिजनौर (उ.प्र.) सुन्दर पत्रिका 'जिनभाषित' के दो अंक प्राप्त हुए। दोनों अंकों में एक-से-एक सुन्दर लेख / शोधलेख पढ़कर अत्यंत आनन्द हुआ। 'महावीर प्रणीत जीवन-पद्धति की प्रासंगिकता' कैसे मनाएँ भ. महावीर का 2600वाँ जन्म क. महो आदि सभी लेख उद्बोधक हैं। नाम लें तो सभी की चर्चा करनी होगी। आपकी पत्रिका लीक से हटकर है। सामयिक विचार है। सभी विद्याओं से भरपूर है। द्वितीय अंक में कुमार अनेकान्त का लेख आँख खोलने वाला है। कुल मिलाकर दोनों अंक बहुत सुन्दर, पठनीय व समय के साथ चलने वाले हैं। डॉ. कुसुम पटोरिया, आजाद चौक, सदर नागपुर (महा.) 'जिनभाषित' की प्रतियाँ प्राप्त होती रहती हैं, संभवतः इधर डाक व्यवस्था की गड़बड़ी के कारण नवीनतम अंक प्राप्त नहीं हो सका। जिनभाषित का हर अंक अपने आप में अनूठा, आकर्षक और आध्यात्मिक सामग्री से भरा होता है, जिसे खोलने के बाद मैं अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ने के बाद ही इसे बन्द करता हूँ। यह पत्रिका धर्म में आई Jain Education International कुरीतियों को दूर करने के साथ-साथ सामाजिक अन्धविश्वासों को भी समाप्त कर पायेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। मेरा अपना एक सुझाव यह भी होगा कि आप इसके हर अंक में कम से कम एक लेख जैन इतिहास एवं पुरातत्त्व से अवश्य दें, ताकि पत्रिका जैन इतिहास एवं संस्कृति पर शोधकर्ताओं के लिये भी अधिक से अधिक उपयोगी हो सके। 'जिनभाषित' की सफलता और उज्ज्वल भविष्य के लिये मेरी सारी शुभकामनाएँ। डॉ. विनोद कुमार तिवारी रीडर एवं अध्यक्ष, इतिहास विभाग यू. आर. कालेज, रोसड़ा (समस्तीपुर) बिहार 'जिनभाषित' का जून 2001 का अंक प्राप्त हुआ। मुखपृष्ठ पर ही परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का चित्र देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आचार्य श्री के दैगम्बरी दीक्षा दिवस के अवसर पर अच्छी सामग्री प्रकाशित की गई है। आपके सम्पादकीय की ये पंक्तियाँ- 'आचार्यश्री चामत्कारिक प्रयोगों में रुचि नहीं रखते' जहाँ कतिपय आधुनिक जैन साधुओं में मन्त्रतन्त्र के द्वारा मनोकामनाएँ पूर्ण करने का प्रलोभन देकर भीड़ जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहाँ आचार्यश्री इसे मुनिधर्म के सर्वथा है, वहाँ आचार्यश्री इसे मुनिधर्म के सर्वथा विरुद्ध बतलाते है और इसका सख्ती से निषेध करते हैं हृदय को छू गई इन क्रियाकलापों का विरोध होना ही चाहिए। पूज्य मुनिश्री समतासागर महाराज, मुनिश्री अजितसागर महाराज मुनिश्री क्षमासागर महाराज के लेख भी मननीय है संयम, तप, अपरिग्रह का मनोविज्ञान भी पठनीय है। पं. रतनचन्द्र बैनाड़ा द्वारा प्रस्तुत 'शंका-समाधान' एक अच्छा प्रयास है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें सामग्री धर्म और दर्शन पर आधारित है। यह धर्म प्रचार का साधन बने, यही अपेक्षा है। डॉ. नरेन्द्र जैन 'भारती' वरिष्ठ सम्पादक- 'पार्श्व ज्योति' सनावद (म.प्र.) For Private & Personal Use Only वर्तमान युग के अनुरूप 'जिनभाषित' मासिक पत्रिका का जून माह का अंक प्राप्त कर हार्दिक प्रसन्नता हुई। इस पत्रिका के माध्यम से समाज में विलुप्त जैन धर्म शिक्षण का कार्य पुनः गति प्राप्त करे, सर्वोदय भाग्योदय जीवोदय के साथ ज्ञानोदय का उदय हो, इसकी महती आवश्यकता है। आज वर्णीजी जैसे महान् व्यक्तित्व की बहुत आवश्यकता है। पूज्य वर्णोंजी द्वारा स्थापित जैन विद्यालय, जैन पाठशालाएं विलुप्त हो गई हैं । । पुनः इस पत्रिका के माध्यम से जैन धर्मशिक्षण की आवश्यकता की आवाज बुलन्द कीजिए। साधु-सन्तों का ध्यान इस ओर आकर्षित कीजिए। पं. जैन हुकमचन्द डोंगरगाँव (राजनांदगांव) - 491661 'जिनभाषित' का जून 2001 अंक पढ़ा। वास्तव में यह पत्रिका अद्वितीय है। सम्पूर्ण जानकारी सारगर्भित, आत्मप्रेरक एवं सकारात्मक लगी। 'शाबाश गुजरात' शीर्षअंतर्गत विशेष समाचार हृदय को छू गया। 'श्रमण परम्परा के ज्योतिर्मय महाश्रमण आचार्य श्री विद्यासागर' लेख अनुपम एवं हम श्रावकों के लिये प्रेरणादायक है। सौभाग्य है, हमारा जो यह पत्रिका हमें पढ़ने मिली, हर किसी ने पत्रिका को बड़ी श्रद्धा और रूचि के साथ पढ़ा। सधन्यवाद, शुभकामना सहित प्रमोद कुमार जैन 102, अनलि कॉम्प्लेक्स, जैन मंदिर के पास, टी.टी. नगर, भोपाल (म.प्र.) सादर । जिनभाषित का अंक जून 2001 प्राप्त हुआ। इसमें पृष्ठ 26 पर मूलचन्द जी लुहाड़िया द्वारा प्रेषित समाचार पढ़कर कि दयानन्द विश्वविद्यालय, अजमेर ने कवि सुन्दरदास जी का आपत्तिजनक पद्य पाठ्यक्रम से निष्कासित कर दिया है, बहुत प्रसन्नता का अनुभव हुआ । इस आन्दोलन का शीघ्र ही इतना सुखद परिणाम आयेगा यह सितम्बर 2001 जिनभाषित 31 www.jainelibrary.org
SR No.524255
Book TitleJinabhashita 2001 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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