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________________ CAN हृदय में माया का अभाव ही आर्जव है। 3 HN NNNNY बा. ब्र. पवन जैन, बा. ब्र. कमल जैन * * * * * * * (जैन उदासीन आश्रम, ईसरी) सरलभाव, वक्रतारहित, मायाचाररहित, दोषों में प्रवृत्ति करना । (३) सति प्रयोग : परिणति का नाम आर्जव धर्म है। जैसा अंतरंग धनादि के लिए विवाद करना, धरोहर मेटना, अर्थात् मन में करने का अभिप्राय हो वैसा ही दूसरों को दोष देना और अपनी प्रशंसा करना । बाहर में भी करना अर्थात् वचन व काय से भी (४) प्रणिधिः महंगी वस्तु में सस्ती वस्तु मिलाना, वैसा कहना या करना । अन्तरंग व वाह्यक्रिया में नापने-तौलने के तराजू आदि हीन-अधिक रखना, अन्तर न होने का नाम ही सरलता है । तथा वस्तु का रंग बदलना आदि । (५) प्रतिकुंचनः अन्तरंग अभिप्राय में कुछ ओर रखते हुए बाहर में आलोचना करते हुए दोनों का छुपाना । व्यक्ति कुछ ओर ढंग से बोलना या करने का नाम वक्रता समझता है कि हमारा कपट किसी ने नहीं देखा, है। व्यक्ति का व्यक्तित्व वास्तव में वह नहीं है जो किन्तु सामनेवाला समझ जाता है। मायावी का कि दूसरों को दिखाने का प्रयत्न करता है बल्कि चेहरा धर्मात्मा का लगता है, पर हृदय पापी का वह है जो कि वह स्वयं जानता है। अनेक प्रकार होता है। मायावी मंदिर में कुछ और करता है की लोक दिखावी प्रवृत्तियों के द्वारा अपने को बाहर कुछ और । देखने वालों को मायावियों का उससे अधिक दिखाने का प्रयत्न दम्भाचरण कहलाता आचार अच्छा लगता है, किन्तु उनके विचार भगवान है, जो कि शान्ति के मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है, जाने । क्रोधी सुधर सकता है, मानी भी सुधर इसलिए कि एसा करने वाले की दृष्टि में सदा सकता है, पर मायावी का चेहरा धर्मात्मा का दूसरों को प्रभावित करने की प्रधानता रहती है। दिखता है, कार्य पापी के समान होता है । छल जिसके कारण उसे अपने भीतर झांक कर देखने करना पाप है, छला जाना पाप नहीं है । जो छल का अवसर ही नहीं मिलता है। वह बड़े से बड़ा करता है वह सदा चिन्तित रहता है। कपटी की तप करता है, सभी धार्मिक क्रियाएँ करता है और माता भी उस पर विश्वास नहीं करती तो अन्य की सम्भवतः सच्चे साधक की अपेक्षा अधिक करता तो बात ही क्या? मायावी मित्रद्रोही, स्वामीद्रोही, है, परन्तु लोक दिखावा मात्र होने के कारण उनका धर्मद्रोही, कृतघ्नी होता है । सरल परिणामों से न अपने लिए कुछ मूल्य है और न किसी अन्य उर्ध्वगति की प्राप्ति होती है। कुटिल परिणामों से के लिए। चतुर्गति रुप संसार की प्राप्ति होती है। अब तुम्हें माया पाँच प्रकार की होती है। (१) निकृति जो अच्छा लगे वह करो, ज्यादा कहने से क्या : धन अथवा कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों को प्रयोजन है ? सरल परिणामों से अगले जन्म में ठगने में अत्यन्त तत्पर होना । (२) उपधि : तीर्थंकर, ईन्द्र, धर्णेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की विभूतियाँ सज्जनता को ढककर धर्म के बहाने चोरी आदि प्राप्त होती हैं । सरल चित्त मनुष्यों के भव का हिव्यध्वनि -२०११ ............ ....................... 3१
SR No.523255
Book TitleDivya Dhvani 2011 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMitesh A Shah
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2011
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Divya Dhvani, & India
File Size7 MB
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