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________________ The Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4 1974 महावीरस्वामी के पूर्व जैनधर्म डॉ. मनोहरलाल दलाल, उज्जैन भगवान् महावीर के पूर्व जैनधर्म के अस्तित्व और ऐतिहासिक विकासक्रम पर विद्वानों में प्रत्यन्त मतभेद है । उपलब्ध साधन स्रोतों के मूल्यांकन और तात्पर्य वैभिन्न्य के कारण प्राङ् महावीरयुगीन जैनधर्म के सम्बन्ध में विद्वानगरण के निष्कर्ष भिन्न-भिन्न हैं । जैन परम्परा दृढ़तापूर्वक महावीर के पूर्व तेईस तीर्थंकरों का विभिन्न अंतरालों में जन्म और धर्मदेशना द्वारा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार अक्षुण्ण मानती है । कुछ विद्वान' वैदिक युग के पूर्व से ही भारत में श्रमरण - संस्कृति का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । एच. याकोबी' ने विभिन्न प्रमारणों के आधार पर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता सिद्ध की है, जिनका महापरिनिर्वाण महावीर के २५० वर्ष पूर्व हुआ था । जैनधर्म की प्राचीनता जैन - परम्परा जगत् को अनादिकाल से अनवरत मानती है, इसमें जगत् का अपकर्ष - उत्कर्षमय कालचक्र अनवरतक्रम से गतिशील माना गया है । इन कालचक्रों में तीर्थंकरों द्वारा धर्म का प्रचार अविरल रहा है और रहेगा । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, तिलोय पण्णत्ति, आवश्यक चूरिंग आदि परवर्ती ग्रन्थों में इस सतत कालचक्र को अवसर्पिरिण और उत्सर्पिरिणकाल की संज्ञा दी गई है । हास्त्रोन्मुखकाल को अवसर्पिरिण और विकासोन्मुखकाल को उत्सर्पिरिण नाम से सम्बोधित किया गया है । अवसर्पिरिण ने क्रमिक अपकर्ष और उत्सर्पिरिंग के क्रमिक उत्कर्षकाल को परस्पर प्रतिकूल क्रम से छः-छः भागों (रों) में विभाजित किया गया है । सुषम- सुषम, सुषम, सुषम-दुषम, दुषम- सुषम और दुषम-दुषम अवसर्पिरिणकाल तथा दुषम-दुषम, दुषम, दुषम- सुषम, सुषम-दुषम, सुषम और सुषम- सुषम उत्सर्पिरिणकाल के भाग हैं । इस पूरे कालचक्र को बीस कोटाकोटी सागोपम का मानकर प्रत्येक काल के दस कोटाकोटी सांगरोपम का माना गया है । अवसर्पिरिणकाल के प्रथम आरे में युगलिकगरण सुखी, दीर्घजीवी, ऊँचे और शक्तिशाली थे । इस आरे की सम्पन्नता एवम् सुख का क्रमिक ह्रास द्वितीय आरे में हुआ । तृतीय प्रारे में चौदह कुलकर हुए तथा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म इस सुषम - दुषम के ८४ लाख पूर्व ३ वर्ष ८३ मास अवशिष्ट रहने पर अन्तिम कुलकर नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से इक्ष्वाकुभूमि प्रयोध्या में हुआ था । शेष तेईस तीर्थंकरों ने अपनी धर्मदेशना और चतुर्विधसंघ की स्थापता चतुर्थ प्रारे दुषम - सुषम में को। जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों के नाम- १ ऋषभ २ श्रजित, ३ सम्भव, ४ अभिनन्दन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्व ८ चन्द्रप्रभ, ६ सुविधि अथवा पुष्प, १० शीतल, ११ श्रेयांस, १२ वासपूज्य, १३ विमल, १४ अनन्त १५ धर्म, १६, शांति, १७ कुन्थु, १८ अर, १६ मल्लि, २० मुनि सुव्रत, २१ नभि, २२ नेमि, २३ पार्श्व, २४ वर्धमान अथवा महावीर मान्य हैं । जैन परम्परा के अनुसार सभी तीर्थंकर क्षत्रियवंश में उत्पन्न थे । मुनिसुव्रत और नमि का जन्म हरिवंश में तथा शेष बाईस का जन्म इक्ष्वाकु कुल में हुआ था । उन्नीसवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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