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________________ the Vikram Vol. XVIII No. 2 & 4, 1974 हिंसा प्रकृति है अहिंसा संस्कृति है डॉ. ब्रजबिहारी निगम भारतीय सामाजिक इतिहास में श्रमण संस्कृति का एक विशिष्ट योगदान रहा है। महावीर एवम् बुद्ध के अवतरित होने के काल तक वैदिक संस्कृति का मूल आधार प्रवृत्ति-मूलक जीवन में श्री और समृद्धि था। शरदः शतम् तक जीने की कामना रखने वाला आर्य सुख से जीना चाहता था। परन्तु श्री और समृद्धि का जीवन शुद्ध भी हो, यह आवश्यक नहीं है। वैदिक मंत्रदृष्टा ऋषि सत्यं वद एवम् धर्म चर का उपदेश दिया करता था। व्यावहारिक जीवन में सत्य और धर्म अपने भिन्न-भिन्न रूप ग्रहण कर लेते हैं। साधारण जनता जीना चाहती है और सुख की कामना करती है। जीने की इस प्रक्रिया में परिस्थिति के अनुसार सत्य एवम् धर्म के व्यावहारिक अर्थ होते गए है। सारे विश्व को ब्रह्ममय समझने एवम् सब भूतों में आत्मा के दर्शन करने वाली वैदिक संस्कृति में वेदानुकूल जीवनहिंसा को हिंसा नहीं माना गया। यज्ञों में साधारण प्राणी की बलि देने से लगायत नरबलि तक के प्रमाण तत्कालीन इतिहास में उपलब्ध हैं। वेदाकालीन इतिहास में साधारन जनता का उद्देश्य सांसारिक अभ्युदय ही रहा । व्यक्तिगत जीवन में निश्रेयस् की सिद्धि के साधक भी थे, पर थे वे अपवाद स्वरूप । इसका आशय यह है कि जब प्रादर्शों की प्राप्ति तथा जनसाधारण के लिए मार्ग निर्देशन करनेवालों का एक अलग वर्ग खड़ा हो जाता है, तब शुद्ध रूप से धर्माचरण का उत्तरदायित्व इसी वर्ग का हो जाता है, जबकि साधारण जनता दैनंदिन जीवन के लिए जैसा आवश्यक हुमा उसी प्रकार परिवेश से समझौता करके जीना प्रारम्भ कर देती है। जो सुखी, समृद्ध और दीर्घायु जीवन प्राप्त करले वही सबसे सफल व्यक्ति गिना जाता है, और ऐसा ही व्यक्ति दूसरों के लिए आदर्श बन जाता है । धर्म चूंकि सामाजिक उद्भावना है, उसमें भी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन एवम् परिवर्धन समाविष्ट करा दिए जाते हैं। प्रतः वैदिक प्रज्ञा के शुद्ध एवम् उन्नत होने पर भी सामाजिक जीवन को यह ऊँचाई प्राप्त नहीं हो सकी। विचार एवम् व्यवहार में भेद रहता है एवम् व्यवहार हमेशा विचारानुकूल होने का प्रयास करता रहता है। विचार एवम् व्यवहार का यह भेद ही सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवम् सांस्कृतिक प्रगति का कारण श्रमण संस्कृति में इस भेद को कम करने का पूरा-पूरा प्रयास किया गया है। है । तीर्थंकरों एवम् बुद्ध ने सीधे जनता से उनके सामाजिक जीवन की प्रगति एवम् समृद्धि के लिए जनता की भाषा में ही बात की। परमतत्व, प्राकृतिक देवता तथा पारलौकिक जीवन की चिन्ता छोड़कर वर्तमान जीवन को शुद्ध बनाने की बात कही। शुद्ध जीवन एवम् समृद्ध जीवन के आदर्शों में भेद है। यह आवश्यक नहीं है कि समृद्ध जीवन शुद्ध हो, जब कि शुद्ध जीवन समृद्ध जीवन भी हो सकता है। शुद्ध जीवन चेतना-विशिष्ट एवम् अंतरजगत की यात्रा है। यह केवल वैचारिक स्थिति नहीं है। यह तो विचार एवम् प्राचार के तादात्मय की सतत् अनुभूति है। शुद्ध आत्मा के विचार एवम् व्यवहार में पुष्प एवम् उसकी सुगन्ध-सा सम्बन्ध है। जब प्रात्मा शुद्ध होती है तो आचार अपने आप प्रगट होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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