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________________ प्राक्मध्यकालीन जैन परिकर के खण्ड सुमन्तभाई शाह जैन शिल्प कला में तीर्थंकर एवम् यक्ष-यक्षिणियों की प्रतिमाओं के पीछे की विशेष सजावट को हम परिकर कहते हैं । प्राकृत भाषा में परिवार को ही परिकर कहते है । यह परिकर प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को विशेष रूप में अर्थपूर्ण एवं आकर्षक बनाते हैं। परिकर कई प्रकार के होते हैं जैसे तीर्थकरों के चौबीसी परिकर, पंचतीर्थी परिकर, तीनतीर्थी परिकर एवं आकर्षक आभामण्डलों के साथ चामरधारी इन्द्रों, यक्षयक्षणियों, आकाश से उतरते हुये वाद्य एवं पूजन-सामग्री के साथ सजे हुए गंधर्व-किन्नर, पशु पक्षियों की कतारें, व्याल, हाथी एवम् बेलबूटों से सजे परिकर होते हैं वैसे ही यक्ष-यक्षिणियों के भी परिकर होते हैं । आत्मवल्लभ जैन स्मारक संग्रहालय में उपलब्ध परिकर प्रवि. क्र. ९४.३ (चित्र १) हमारा ध्यान विशेष रूप में आकर्षित करता है। संग्रहालय के अध्यक्ष एवं पुरातत्त्ववेत्ता प्रोफेसर एम. ए. ढाकी ने भी उसकी प्रशंसा करते हुए बताया कि यह परिकर प्रायः ६ठी ७वीं शती का हो सकता है, जिस पर विचार करना चाहिये । यह परिकर एवं अन्य शिल्प सामग्री हमें गुजरात के वड़ोदरा जिले में पादरा तहसील के वणच्छरा गाँव-वणच्छरा जैन तीर्थ से प्राप्त हुई है इसमें आचार्य श्री विजय नित्यानंदसूरीश्वर जी महाराज की प्रेरणा एवं प्रखर विद्वान् पुरातत्त्ववेत्ता श्री उमाकान्तभाई पी. शाह का मार्गदर्शन सहायक बना है। वणच्छरा तीर्थ के मंत्री ने बताया कि आज का प्रचलित नाम वणच्छरा तीर्थ पुरातनकाल में वच्छनगर था । हेमराज एवं वत्सराज दो भाई थे, जो व्यापार हेतु यहाँ आये थे, जिसका उल्लेख जैन साहित्य में पाया जाता है । उसके मुताबिक वत्सराज ने वच्छनगर का निर्माण किया था, जो व्यापार केन्द्र एवं बन्दरगाह था । आज भी यह ढाढड़ नदी के किनारे पर स्थित है, लेकिन समुद्र से काफी दूर है । लगता है समय के बहाव ने समुद्र को इतना दूर कर दिया है । वत्सराज ने यहाँ बावन जिनालय का भी निर्माण किया था जो कि कालचक्र में लुप्त हो गया है। यहाँ के मंदिर का बार-बार जीर्णोद्धार होता रहा है एवं अवशेष मिलते रहे हैं । यह शिल्प सामग्री भी जीर्णोद्धार के समय उत्खनन कार्य से प्राप्त हुई है। लेकिन एक संशय होता है। क्योंकि भगवान् महावीर के विशाल जैन मंदिर का, ओसिया (राजस्थान) में निर्माण हुआ था वहाँ मिले शिल्पलेख के मुताबिक उसका निर्माण ८वीं शताब्दी में प्रतिहार राज वत्सराज ने किया था । हो सकता है वच्छनगर का निर्माण भी उसी ने किया हो ! लेकिन उपलब्ध परिकर ५वीं ६ठी शताब्दी का है तो इसका मतलब इस स्थल पर पहले भी जैन मंदिरों का निर्माण होता रहा है। हल्के से गुलाबी संगमरमर के पत्थर में बने इस परिकर में दो स्तंभ, दो व्याल, दो हाथी, दो करबद्ध मानवाकृतियाँ, दो मकर (चित्र १-३) एवं एक सुंदर आभामण्डल है (चित्र ४) । इन तत्त्वों का विशेष अवलोकन करें : स्तंभ की कला एवं बनावट समय-समय पर बदलती रही है। संपूर्ण स्थापत्य कला में स्तंभ का विशेष महत्त्व है, विशेष पहचान है । परिकर के खंभे चौकोणाकार हैं तथा ऊपरी भाग चौकोण कमलाकार बना हुआ है। इसकी ऊपर उठी हुई एवं नीचे झुकी हुई समान्तर रेखाओं से कमल की पंखुड़ियाँ बनी है। यह लाक्षणिकता हमें ५वीं ६ठीं शताब्दी के दक्षिण भारत के गुफामंडपों में गोलाकार खंभों में भी देखने को मिलती है। अत: इन खंभों की बनावट को भी हम उसी काल से सम्बद्ध कह सकते हैं । व्याल एक कल्पित एवं सिंहनुमा प्राणी है। भारतीय मंदिरादि में इसका कई स्थानों पर उपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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