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________________ ३३० शिवप्रसाद Nirgrantha श्रेष्ठी शाणराज द्वारा गिरनार पर इन्द्रनीलतिलक प्रासाद'९ नामक जिनालय बनवाने की बात भी कही गयी है। शाणराज द्वारा यहाँ विमलनाथ के परिकर का निर्माण करने का उल्लेख वि. सं. १५२३ के एक शिलालेख० में प्राप्त होता है । आचार्य विजयधर्मसूरि ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है : "संवत् १५२३ वर्षे वैशाख सुदि १३गुरौ श्रीवृद्धतपापक्षे श्रीगच्छनायक भट्टारक श्रीरत्नसिंहसूरीणां तथा भट्टारक उदयवल्लभसूरीणां [च] उपदेशेन । ब्य. श्रीशाणा सं. भूभवप्रमुख श्रीसंघेन श्रीविमलनाथपरिकरः कारितः प्रतिष्ठिता गच्छाधीशपूज्यश्रीज्ञानसागरसूरिभिः ॥" यह शिलालेख आज उपलब्ध नहीं है । शाणराज की गिरनार प्रशस्ति२१ की प्रारंभिक पंक्तियाँ ही वहाँ से प्राप्त हुई है शेष अंश नहीं मिलता किन्तु सद्भाग्य से इसका अधिकांश भाग बृहद्पौषालिकपट्टावली में प्राप्त हो जाता है । महीवालकथा, कुमारपालचरित, शीलदूतकाव्य, आचारोपदेश आदि के रचनाकार एवं वि. सं. १५२३ तक विभिन्न जिनप्रतिमाओं के प्रतिष्ठापक चारित्रसुन्दरगणि२२ तथा वि. सं. १४९७ में संग्रहणीबालावबोध और वि. सं. १५२९ में क्षेत्रसमासबालावबोध के कर्ता दयासिंहगणि२३ भी इन्हीं रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे। वि. सं. १५१६ में लिखी गयी उत्तराध्ययनसूत्र की एक प्रति से ज्ञात होता है कि इसे रत्नसिंहसूरि की शिष्या धर्मलक्ष्मी महत्तरा२४ के पठनार्थ लिखा गया था । रत्नसिंहसूरि के शिष्य एवं पट्टधर उदयवल्लभसूरि५ हुए जिनके द्वारा वि. सं. १५२० के लगभग रचित क्षेत्रसमासबालावबोध नामक कृति प्राप्त होती है। वि. सं. १५१९-२१ तक के कुछ प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। उदयवल्लभसूरि की दो शिष्याओं रत्नचूलामहत्तरा एवं प्रवर्तिनी विवेकश्री का उल्लेख मिलता है । इनके पट्टधर ज्ञानसागरसूरि हुए जिनके द्वारा वि. सं. १५१७ में रचित विमलनाथचरित्र और अन्य कृतियाँ प्राप्त होती हैं। इन्हीं के लेहिया लौंका ने वि. सं. १५२८ में अपने नाम से लौकागच्छ का प्रवर्तन किया जिससे श्वेताम्बर सम्प्रदाय मूर्तिपूजक और अमूर्तिपूजक-दो भागों में विभक्त हो गया । वि. सं. १५२२-१५५३ तक के जिनप्रतिमाओं में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। ज्ञानसागर के पट्टधर उदयसागर हुए । इनके द्वारा प्रतिष्ठापित वि. सं. १५३२-१५७३ तक की जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं । उदयसागर के प्रशिष्य एवं शीलसागर के शिष्य डूंगरकवि द्वारा रचित माइबावनी नामक कृति प्राप्त होती है । उदयसागर के पट्टधर लब्धिसागर हुए जिनके द्वारा वि. सं. १५५६ में रचित ध्वजकुमारचौपाई और श्रीपालकथा (वि. सं. १५५७) आदि कृतियाँ मिलती हैं। वि. सं. १५५१ से १५८८ तक के प्रतिमालेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है । लब्धिसागरसूरि के दो शिष्यों-धनरत्नसूरि और सौभाग्यसागरसूरि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। सौभाग्यसागर के शिष्य उदयसौभाग्य द्वारा वि. सं. १५९१ में रचित हेमप्राकृतद्वंढिका नामक कृति प्राप्त होती२३ है । इनके एक शिष्य द्वारा रचित चम्पकमालारास (वि. सं. १५७८) नामक कृति प्राप्त होती है । इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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