________________
३०४
मृगेन्द्रनाथ झा
Nirgrantha
श्रीसरस्वतीकल्पः
(शार्दूलविक्रीड़ितम्) कन्दात् कुण्डलिनि ! त्वदीयवपुषो निर्गत्य तन्तुत्विषा किञ्चिच्चुम्बितमम्बुजं शतदलं त्वद्ब्रह्मरन्ध्रादयः । यश्चन्द्रद्युति चिन्तयत्यविरतं भूयोऽस्य भूमण्डले
तन्मन्ये कवि चक्रवर्ति पदवी छत्रच्छलाद् वल्गति ॥१॥ हे कुण्डलिनी ! तुम्हारे शरीर के मूल से दीप्ति की किरण निकलकर ब्रह्मरन्ध्र के शतदलकमल का स्पर्श करती है, जिससे वह चक्रवर्ती के छत्र के समान लगती है; जो कोई इस द्युति का ध्यान करता है वह इस भूमण्डल पर चक्रवर्ती कवि के समान शोभित होता है।
यस्त्वद्वक्त्र मृगाडूमण्डलमिलत्कान्तिप्रतानोच्छलच्चञ्चच्चन्द्रक चक्रचित्रितककुप्कन्याकुलं ध्यायति । वाणि' ! वाणिविलासभङ्गरपदप्रागल्भ्यशृङ्गारिणी
नृत्यत्युन्मदनर्तकीव सरसं तद्वक्त्ररङ्गाङ्गणे ॥२॥ हे सरस्वती ! आपके मुखरूप चन्द्रमण्डल से निकलते हुए प्रकाश के चन्द्रक चक्र से सभी दिशाएँ कान्तियुक्त होती है, ऐसे कान्तियुक्त मुखमण्डल का जो कोई ध्यान करता है उसके मुखरूपी रंगमण्डप में सरस वाणी उन्मत्त नर्तकी के तरह नृत्य करती है, अर्थात् आभायुक्त चन्द्र समान सरस्वती के मुख का जो ध्यान करता है वह उनकी कृपा से कुटिला वाणी को भी सरस करने में समर्थ हो जाता हैं ॥२॥
देवि ! त्वद्धृत चन्द्रकान्त करकश्च्योत त्सुधा निर्झरस्नानानन्द तरङ्गितः पिबति यः पीयूषधाराधरम् । तारालङ्कृत चन्द्रशक्तिकुहरेणाकण्ठ मुत्कण्ठितो
वक्त्रेणोद्भिरतीव तं पुनरसौ वाणी विलासच्छलात् ॥३॥ हे देवी ! जो कोई आपके हाथ में अनवरत अमृत बरसानेवाला, चन्द्रकान्त से झरते हुए अमि को पुलकित होकर कण्ठ तक पान करता हैं उसके मुँह से निकले शब्द कण्ठ छिद्र होकर वाणी विलास के बहाने दशों दिशाएँ हृदयङ्गम होते हैं (अर्थात् पुलकित मन से आपके मन्त्र का जाप करता हैं वह अगाध पण्डित होता है ।) ॥३॥
क्षुभ्यत्क्षीर समुद्र निर्गत महाशेषाहिलोलत्फणा पत्रोन्निद्र सितारविन्द कुहरेचन्द्र' स्फरत्कर्णिके । देवि ! त्वाञ्च निजञ्च पश्यति वपुर्यः कान्तिभिन्नान्तरं
ब्राह्मि ब्रह्मपदस्य वल्गति वचः प्रागल्भ दुग्धाम्बुधेः ॥४॥ हे देवी ! शेषनाग के फन से चलायमान क्षीर समुद्र के श्वेत कमल पर विराजमान आपके स्वरूप को जो क्षीरसमुद्र से भी अधिक कान्ति युक्त देखता है, उनके कान में आप शास्त्र कहती हैं ।
(१) पा. १-२ नी, (२) पा. १ वाणी, (३) श्चयो, (४) पा. १-२ तं, (५) पा. १-२ कुहरैश्चन्द्र, (६) पा. १-२ कणिकैः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org