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Vol. III - 1997-2002 अनेकान्तवाद....
२९९ नित्यानित्यात्मक मानने से पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष एवं जन्म-मरण जैसी घटना युक्तियुक्त सिद्ध हो सकती है। धर्म के साधनभूत अहिंसा एवं अधर्म के साधनभूत हिंसा को भी सिद्ध कर सकते है । यथा व्यावहारिक हिंसा की क्रिया में दो व्यक्तिओं का अस्तित्व होता है । एक मारने वाला और दूसरा मारा जाने वाला व्यक्ति । हिंसा होते समय मारने वाले में पीड़ा-कर्तृता रहती है और मारे जाने वाले के शरीर का नाश होता है। मारने वाले के मन में मैं इसे मारूं इस प्रकार की पापभावना उत्पन्न होती है इसलिए हिंसा एक सकारण घटना सिद्ध होती है । हिंसा होते समय मारे जाने वाले व्यक्ति के अशुभ कर्म का उदय हो रहा होता है एवं मारने वाला व्यक्ति इस हिंसा में निमित्त अवश्य बनता है । वह दोषदूषित हिंसा मारने वाले व्यक्ति के लिए अशुभ कर्मबन्ध कराने वाली हिंसा, मारने वाले की हिंसा कहलाती है । इस दशा में सदुपदेश आदि के द्वारा क्लिष्ट कर्मों के नाश से मन में शुभ भावना का उदय होता है उससे वह हिंसा से निवृत्त हो जाता है। ऐसी अहिंसा स्वर्ग तथा मोक्ष का कारण बनती है। अहिंसा के सिद्ध होने पर उसके संरक्षण एवं उपकारभूत सत्यादि का पालन भी युक्तिसंगत ठहरेगा। अत: अहिंसा स्वर्ग, मोक्ष का कारण बनती है और स्मरण, प्रत्यभिज्ञा और संस्पर्श जैसी स्थिति के कारण आत्मा की कथंचित् नित्यता भी सिद्ध होगी । यह आत्मा शरीप्रमाण है और धर्म के द्वारा ऊर्ध्वगामी तथा अधर्म के कारण अधोगामी बनती है। इस प्रकार संक्षेप में आत्मा के नित्यानित्य धर्म का स्थापन किया गया है ।
जैन दर्शन संमत आत्मतत्त्व में अनेकान्तवाद का स्थापन एवं उसके आधार पर अहिंसा आदि की सिद्धि ही प्रस्तुत अष्टक का प्रमुख लक्ष्य है ।
सन्दर्भ : १. दीक्षित के० के० प्रस्तावना अष्टक प्रकरणम्, प्रका० ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद, प्रथमावृत्ति, १९९९,
पृ० ३ । २. दीक्षित के० के० वही. पृ० १२ । ३. जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वहइ । तस्स भुवणेक्कगुरूणो नमो नमो अणेगंतवाइस्स ॥ ४. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । इति प्रमाणान्यपि ते कुवादि कुरङ्ग संत्रासन सिंहनादाः ॥२२॥
अयोगव्यवच्छेदिका, हेमचन्द्रसूरि, स्याद्वादमंजरी, संपा० मुनिराज अजितशेखरविजयजी, प्रका० जैन संघ, गुन्टूर, द्वितीय आवृत्ति,
सं० २०४८, पृ० २६१ ।। ५. अष्टक प्रकरणम्, आचार्य हरिभद्रसूरि, टीकाकार जिनेश्वरसूरि, प्रकाशक : मनसुखभाई भगुभाई शेठ, अहमदाबाद, संपा० ___ अज्ञाज्ञ, वर्ष अज्ञात, पृ० ५१-६० । ६. वही. पृ० ५२ । ७. निष्कियोऽसौ ततो हन्ति हन्यते वा न जातुचित् । किञ्चित् केनचिदित्येवं न हिंसाऽस्योपपद्यने ॥१४.२।।
अष्टक प्रकरणम्, ला० द० अहमदाबाद, विद्यामंदिर पृ० ४४ । ८. अष्टक प्रकरणम्, आ० हरिभद्रसूरि, टीकाकार जिनेश्वरसूरि प्रका० मनसुखभाई भगुभाई, अहमदाबाद पृ० ५२ ।
९. वही. पृ० ५३ । .१०. सांख्यकारिका, व्याख्याकार, डॉ० राकेश शास्त्री, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली १९९८, पृ० १२७ । ११. अष्टक प्रकरणम्, टीकाकार जिनेश्वरसूरि, प्रका० मनसुखभाई भगुभाई, अहमदाबाद पृ० ५३ । १२ नाशहेतोरयोगेन क्षणिकत्वस्य संस्थितिः । नाशस्य चान्यतोऽभावे, भवेद्धिताऽप्यहेतुका ॥१५.२॥
अष्टक प्रकरणम्, ला० द० भारतीय विद्यामंदिर, अहमदाबाद पृ० ४८ । १३. वही. पृ० ४९ १४. पीडाकर्तृत्वयोगेन देहव्याप्त्यपेक्षया । तथा हन्मीति संक्लेशाद् हिंसैषा सनिबंधनाः ॥१६-२॥ वही, पृ० ५२ । १५. हिंस्यकर्म विपाकेऽपि निमित्तत्वनियोगतः । हिंसकस्य भवेदेषा दुष्टा दुष्टानुबंधतः ॥१६-३॥ वही. पृ० ५३ ।
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