SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Vol. III- 1997-2002 अकलंकदेव कृत न्यायविनिश्चय... "यथानुदर्शनञ्चेयं मानमेयफलस्थितिः । क्रियतेऽविद्यमानापि ग्राह्यग्राहकसंविदाम् ॥" कारिका ८ / २१ की वृत्ति में "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगं न भवेत् ८१ करके वाक्य पूर्ण हुआ है। यह न्यायसूत्र का सूत्र है, जो इस प्रकार पाया जाता है २ - युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् । कारिका संख्या ८/३९ की वृत्ति में "चैतन्यवृत्तिमचेतनस्य" करके "स्वार्थमिन्द्रियाणि आलोचयन्ति मनः सङ्कल्पयति अहङ्कारोऽभिमन्यते बुद्धिरध्यवस्यति इति ८३ वाक्य उद्धृत है। इसी वृत्ति के टीकाकार अनन्तवीर्य ने “तथा च तेषां राद्धान्ते" करके "इन्द्रियाण्यर्थमालोचयन्ति, अहङ्कारोऽभिमन्यते मनः संकल्पयति, बुद्धिरध्यवस्यति, पुरुषश्चेतयते८४" वाक्य उद्धृत किया है । नि:सन्देह ये सांख्यमत के कथन हैं । परन्तु कहाँ से ग्रहण किये गये हैं, यह पता नहीं चलता । हाँ, सांख्यकारिका की माठरवृत्ति५ में उक्त कथनों का भाव शब्दान्तरों के साथ प्राप्त होता है । यथा- "एवं बुद्ध्यहङ्कारमनश्चक्षुषां क्रमशो वृत्तिर्द्रष्टा- चक्षुरूपं पश्यति मनः संकल्पयति अहङ्कारोऽभिमानयति बुद्धिरध्यवस्यति ।" इसी तरह सिद्धिविनिश्चय १/२३ की टीका पर भी टीकाकार ने यही वाक्य उद्धृत किया है८६ । कारिका ९/१४ की वृत्ति में " यद्ययं निर्बन्धः ८७ करके "नाकारणं विषयः "८८ वाक्य उद्धृत है । यह जैनेन्द्रव्याकरण का सूत्र है" । २८९ कारिका संख्या १०/७ की वृत्ति में "पर्याय (निराकरणात् दुर्णयः) यथा रूप" से " आरामं तस्य पश्यन्ति ९९ इत्यादि बृहदारण्यकोपनिषद्‍ का वाक्र्य पुनः उद्धृत हुआ I Jain Education International कारिका ११ /२५ की वृत्ति में "यतः" करके "सर्वे" इत्यादि भवेत् के द्वारा बौद्धमत की ओर संकेत किया गया है । यह संकेत प्रमाणवार्तिक की तरफ है । प्रमाणवार्तिक में सम्पूर्ण कारिका इस प्रकार पायी जाती है९४ "सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः । स्वभावपरभावाभ्यां यस्मात् व्यावृत्तिभागिनः ॥" कारिका १२ / ११ की वृत्ति में "एतदुक्तं च" करके “अभिन्नः संविदात्मार्थः भाति भेदीव सः पुनः । प्रतिभासादिभेदे स्वापप्रबोधादौ न भिद्यते ॥ १९५ यह कारिका उद्धृत की गयी है । इस कारिका का निर्देश स्थल ज्ञात नहीं हो सका है । सविवृति प्रमाणसंग्रह प्रमाणसंग्रह अकलंकदेव की तार्किक / युक्ति प्रधान रचना है। दूसरे शब्दों में इसमें प्रमाणों / युक्तियों का संग्रह किया गया है, इसलिए इसको प्रमाणसंग्रह नाम दिया गया है। इस ग्रन्थ की भाषा और विषय दोनों • अत्यन्य जटिल और दुरूह हैं, इसलिए विद्वानों को भी कठिनता से समझने योग्य है । इसमें अकलंक के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा प्रमेयों की बहुलता है । प्रमाणसंग्रह के अनेक प्रस्तावों के अन्त में न्यायविनिश्चय की बहुत सी कारिकाएँ बिना किसी उपक्रम वाक्य के ली गयी हैं और इसकी प्रौढ शैली के कारण, इसे अकलंकदेव की अन्तिम कृति और न्यायविनिश्चय के बाद की रचना माना गया है । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy