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________________ २८६ कमलेश कुमार जैन Nirgrantha उपर्युक्त दोनों प्रसंगों से स्पष्ट है कि सिद्धिविनिश्चय की कारिका २/२५ के उत्तरार्ध "ज्ञायते" इत्यादि की रचना स्वयं अकलंकदेव ने की है। कारिका संख्या ३/४ की वृत्ति "गो सदृशो गवयः इति वाक्यात्"३२ के रूप में प्रारम्भ हुई है। इसके मूल स्रोत्र का अभी निश्चय नहीं हो सका । कारिका ३/८ की वृत्ति में "यत् सत् तत्सर्वं क्षणिकमेवेति' ३३ वाक्य उद्धृत है । यह हेतुबिन्दु एवं वादन्याय का वचन है।४ । - कारिका ३/१८ की वृत्ति में "यद् यद्भावं प्रति अन्यान्यपेक्षं तत्तद्भावनियतं यथा अन्त्या कारणसामग्री स्वकार्यजननं प्रति इति परस्य चोदितचोद्यमेतत्" ३५ के रूप में एक वाक्य उद्धृत किया गया है। यह हेतुबिन्दु का वाक्य है । कारिका ४/१४ की वृत्ति में "जलबुबुदवज्जीवाः मदशक्तिवद् विज्ञानमिति परः अर्के कटुकिमानं दृष्ट्वा गुडे योजयति"३७ करके एक वाक्य आया है । इनमें जलबुबुदवज्जीवाः" न्यायकुमुदचन्द्र, पृ. ३४२ पर भी उद्धृत हुआ है । और "मदशक्तिवद् विज्ञानम्" यह वाक्य न्यायकुमुदचन्द्र३९ पृ. ३४२ एवं ३४३ ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य ३/३/५३, न्यायमंजरी पृ. ४३७ एवं न्यायविनिश्चयविवरण, प्रथम भाग पृ. ९३ पर उद्धृत मिलता है। प्रकरणपंजिका पृ. १४६ पर "मदशक्तिवच्चैतन्यमिति" रूप से उद्धृत मिलता है । कारिका संख्या ४/२१ की वृत्ति में "यतः" करके "बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते"४९ वाक्य आता है । यह सांख्यदर्शन के किसी ग्रंथ का कथन है । यह वाक्य तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ५०, आप्तपरीक्षा पृ. १६४, प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. १००, न्यायकुमुदचन्द्र पृ. १९०, न्यायविनिश्चयविवरण, भाग-एक, पृ. २३५ स्याद्वाद रत्नाकर, पृ. २३३ पर भी उद्धृत मिलता है । कारिका संख्या ५/३ की वृत्ति में "शक्तस्य सूचनं हेतुवचनं स्वयमशक्तमपि"४३ वाक्य उद्धृत है । यह प्रमाणवार्तिक की कारिका ४/१७ का उत्तरार्ध है। सम्पूर्ण कारिका इस प्रकार पायी जाती है - "साध्यभिधानात् पक्षोक्तिः पारम्पर्येण नाप्यलम् । शक्तस्यसूचकं हेतुवचोऽशक्तमपि स्वयम् ॥" कारिका संख्या ५/३ की वृत्ति "शब्दाः कथं कस्यचित् साधनमिति ब्रुवन्"४५ वाक्य से प्रारम्भ हुई है। यह वाक्य प्रमाणविनिश्चय से ग्रहण किया गया है, क्योंकि सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य ने इस कथन को "तदुक्तं विनिश्चये" करके उद्धृत किया है । सम्पूर्ण कथन इस प्रकार है - ते तर्हि क्वचित् किंचिद् उपनयतोऽपनयतो वा कथं कस्यचित् साधनम्६ ।" कारिका संख्या ५/४ की वृत्ति "सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारो विकल्पारूढेन धर्मधर्मिन्यायेन न बहि: सदसत्त्वमपेक्षते इति चेत्"४७ से प्रारम्भ हुई है। यह किसी बौद्ध दार्शनिक का कथन है । प्रमाणवार्तिक स्वोपज्ञ स्ववृति १/३ पर "तथा चानुमानानुमेयव्यवहारोऽयं सर्वो हि बुद्धिपरिकल्पतो बुद्ध्यारूढेन धर्मर्मिभेदेनेति उक्तम्"४८ रूप में यह कथन पाया जाता है । और प्रमाणवार्तिक स्ववृति की टीका ९ में इसे आचार्य दिग्नाग का वचन कहा गया है । यथा - "आचार्यदिग्नागेनाप्येतदुक्तमित्याह-तथा चेत्यादि.." । कारिका संख्या ५/५ की वृत्ति में एक कारिका उदधुत की गयी है५० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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