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________________ अशोक कुमार सिंह Nirgrantha पसत्थविगतीतो खीरं दहिं णवणीयं घयं गुलो तेल्ल ओगाहिरा च, अप्पसत्थाओ महु-मज्ज- मंसा । आयरिय- बाल - वुड्ढाइयाणं कज्जेसु पसत्था असंचइयाओ खीराइया घेप्पंति, संचतियाओ घयाइया ण घेप्पंति, तासु खीणासु जया कज्जं तया ण लब्भति, तेण तातो ण घेप्पंति । २७० अह सड्ढा णिब्बंधेण भणेज्ज ताहे ते वत्तव्वा - "जया गिलाणाति कज्जं भविस्सति तया घेच्छामो, बालवुड- सेहाण य बहूणि कज्जाणि उप्पज्जंति, महंत्तो य कालो अच्छियव्वो, तम्मि उप्पण्णे कज्जे घेच्छामो" त्ति । महु - मज्ज - मंसा गरहियविगतीणं गहणं आगाढे गिलाणकज्जं " गरहाला भपमाणे" त्ति गरहंतो गेण्हत्ति, अहो ! अकज्जमिणं किं कुणिमो, अण्णहा गिलाणो ण पण्णप्पर, गरहियविगतिलाभे य पमाणपत्तं गेण्हंति, णो अपरिमितमित्यर्थः, जावतिता गिलाणस्स उवउव इति तंमत्ताए घेप्पमाणीए दातारस्स पच्चयो भवति, पावं णट्ठा गेहंति ण जीहलोलयाए ति ॥ ३१७०॥ नि. भा. चू. १३ इदाणिं अच्चित्ताणं गहणं - छारडगलयमल्लयादीणं उदुबद्धे गहिताणं वासासु वोसिरणं, वासासु धरणं छारादीणां, जति ण गिण्हति मासलहुं, जो य तेहिं विणा विराधणा गिलाणादीण भविस्सति । भायणविराधणा लेपेण विणा तम्हा घेत्तव्वाणि, छारो एक्केकोणे पुंजो घणो कीरति । तलियावि किं विज्जति जदा णविकिंचि ताओ तदा छारपुंजे णिहम्मंति मा पणइज्जिस्संति, उभतो काले पडिलेहिज्जंति, ताओ छारो य जताअवगासो भूमीए नत्थि, छारस्स तदा कुंडगा भरिअंति, लेवो समाणेऊण भाणस्स हेट्ठा कीरति, छारेण उग्गुंडिञ्जति, स च भायणेण समं पडिलेहिञ्जति । अथ अच्छंतयं भायणं णत्थि ताहे मल्लयं लेवेउणं भरिञ्जति पडिहत्थं पडिलेहिज्जति य । द. चू. १४ छार - डगल-मल्लमातीणं गहणं, वासा उडुबद्धगहियाण वोसिरणं, वत्थातियाण धरणं, छाराइयाण वा धरणं, जति ण गेण्हंति तो मासलहुं, जा य तेहि विणा गिलाणातियाण विराहणा, भायणे वि विराधिते लेवेण विणा । तम्हा घेत्तव्वाणि । छारो गहितो एककोणे घणो कज्जति । जति ण कज्जं तलियाहिं तो विगिंचिज्जति । अह कज्जं ताहि तो छारपुंजस्स मज्झे ठविज्जति । पणयमादि- संसज्जणभया उभयं कालं तलियाडगलादियं च सव्वं पडिलेहंति । लेवं संजोएत्ता अप्पडिभुज्जमाणभायणहेट्ठा पुप्फगे कीरति, छारेण य उग्गुंठिज्जति, सह भायणेण पडिलेहिज्जति, अह अपडिभुज्जमाणं भायणं णत्थि ताहे भल्लगं लिपिऊण पडिहत्थं भरिज्जति । एवं काणइ गहणं काणइ वोसिरणं काणइ गहणघरणं ॥ ३१७५ ॥ नि. भा. चू. १५ नि. भा. चू. में उपलब्ध किन्तु द. नि. में अनुपलब्ध इन गाथाओं का विषयप्रतिपादन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । नि. भा. सं. ३१५४ व द. नि. गाथा ६८ में श्रमणों के सामान्य चातुर्मास (१२० दिन) के अतिरिक्त न्यूनाधिक्य चातुर्मास की अवधि का वर्णन है । उसमें ७० दिन के जघन्य वर्षावास का उल्लेख है । ३१५५वीं गाथा में ७० दिन का वर्षावास किन स्थितियों में होता है यह बताया गया है जो कि विषय प्रतिपादन की दृष्टि से बिल्कुल प्रासङ्गिक और आवश्यक है । गाथा सं. ३१६९ और ३१७० में श्रमणों द्वारा आहार ग्रहण के प्रसङ्ग में विकृति ग्रहण का नियम वर्णित है । उल्लेखनीय है कि द. नि. की ८२वीं गाथा के चारों चरण उक्त दोनों गाथाओं के क्रमशः प्रथम (३१६९) और द्वितीय चरण, तृतीय एवं चतुर्थ चरण (३१७०) के समान हैं। इन दोनों गाथाओं का अंश निर्युक्ति में एक ही गाथा में कैसे मिलता है ? यह विचारणीय है । विकृति के ही प्रसङ्ग में अचित्त विकृति का प्ररूपण करने वाली ३१७५वीं गाथा भी प्रासङ्गिक है। क्योंकि द. नि. में सचित्त विकृति का प्रतिपादन है परन्तु अचित्त विकृति के प्रतिपादन का अभाव है जो Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522703
Book TitleNirgrantha-3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Jitendra B Shah
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages396
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Nirgrantha, & India
File Size11 MB
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